श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘नादब्रह्म - मोहन की मुरली’यह नाद मूलतः परमात्मा का ही स्वरूप है। जब भगवान लीला धाम में अवतीर्ण होते हैं, तब उनके दिव्य विग्रह में जितनी कुछ वस्तुएँ होती हैं, सभी दिव्य सच्चिदानन्दमयी भगवत्स्वरूपा होती हैं। इसी से अवतार विग्रह की वाणी में इतना माधुर्य होता है कि उसको सुनते-सुनते चित्त कभी अघाता ही नहीं और यह सोचता है कि लाखों-करोड़ो कानों से यह मधुर ध्वनि सुनने को मिले तब भी तृप्ति होनी कठिन है। चिदानन्दमय श्रीकृष्ण स्वरूप में तो इस नाद का भी पूर्णावतार हुआ था। श्यामसुन्दर की सच्चिदानन्दमयी मुरली का मधुर निनाद ही यह नादावतार था। इसी से उस मुरलीनिनाद ने प्रेममय व्रजधाम में जड को चेतन को जड बना दिया। मोहन के वेणुनिनाद ने वृन्दावन के प्रत्येक आबाल-वृद्ध में, प्रत्येक पशु-पक्षी में, स्थावर-जंगल में, पत्र-पत्र में, कण-कण में और अणु-अणु में प्रेमानन्द भर दिया। उस वंशी नाद को सुनकर विमानों पर चढ़ी हुई सुरबालाओं के धैर्य का बन्धन छूट गया। वे सहसा मुग्ध हो गयीं। उनकी कबरियों में खोंसे हुए नन्दन कानन के कमनीय कुसुम हठात् वहाँ से खिसककर मर्त्यभूमि पर गिर पड़े। गन्धर्व-कन्याएँ संगीत भूलकर मतवाली-सी झूमने लगीं। ऋषि, मुनि, तपस्वी, परमहंस योगियों की ब्रह्म-समाधि भंग हो गयी। बरबस उनका मन वीणा स्वर से विमोहित मृग की भाँति मुरली ध्वनि में निमग्न हो गया। सुधाकर की चाल बंद हो गयी। श्रीकृष्ण के उस वेणुविनिर्गत ब्रह्मनादामृत का पान करने के लिये बछड़ों ने स्तनों को खींचना छोड़कर केवल उन्हें मुँह में ही रहने दिया। गौएँ चरना भूल गयीं। सुरम्य वृन्दारण्य के विहंगों ने मधुर काकली का त्याग करके वंशीध्वनि से झरने वाले अनिर्वचनीय आनन्द का उपभोग करने के लिये आँखें मूँद लीं और श्रवण पात्रों का मुख उस सुधाधारा में प्रवाह में लगा दिया। सिंह-मृगादि वनचर प्राणी भय और हिंसा भुलाकर मुरली मनोहर को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये और कान तथा आँखों को अतृप्त बोध करने लगे। महिषी कालिन्दी अपनी ऊर्मि-भुजाओं को फैलाकर परम प्रियतम का आलिगंन करने के लिये दौड़ पड़ीं। इस प्रकार दिव्य धाम की दिव्य सुधा धारा समस्त धरा मण्डल में बह चली। चेतन जीव जडवत् अचल हो गये और साक्षात् रस राज की रस धारा से प्लावित होकर वृक्ष ही नहीं, सूखे काठ तक रस बरसाने लगे। सूरदास जी ने कहा है-
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