श्रीनारायणीयम्
एकादशदशकम्
तदनन्तर वे द्वारपालों को शाप देते हुए बोले- ‘तुम लोगों की चेष्टा वैकुण्ठलोक के लिए अनुचित है तथा तुम्हारा स्वभाव बड़ा क्रूर है, अतः तुम दोनों आसुरी योनि को प्राप्त हो जाओ।’ इस प्रकार शापित हुए आपके दोनों किंकर जय-विजय ‘हमें भगवत्स्मृति होती रहे’ यों प्रार्थना करते हुए उन मुनियों के चरणों पर गिर पड़े।।4।।
कमलनयन! उस अवसर पर जब आपको उपर्युक्त घटना ज्ञात हुई तब आप तुरंत ही लक्ष्मी के साथ भवन से बाहर निकले और अपनी मनोहर मूर्ति का दर्शन देकर उन मुनियों को आनन्दित किया। उस समय आपने अपनी सुंदर भुजा को गरुड़ के कंधे पर स्थापित कर रखा था।।5।।
तदनन्तर आप स्तुति करने वाले उन मुनीश्वरों को मधुर वाणी द्वारा प्रसन्न करके अपने अनन्यशरण उन दोनों पार्षदों से कृपा-परवश हो यों बोले- ‘तुम दोनों तीन जन्मों में क्रोधजनित एकाग्रता द्वारा पुनः मेरे समीप आ जाओगे’।।6।। |
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