श्रीनारायणीयम्
शततमदशकम्
जिनकी दोनों भुजाएँ प्रकाशमान रत्ननिर्मित बाजूबंद से सुशोभित हैं, जो अपने प्रवाल-सदृश अरुण हाथों से नख-किरणों को बिखेरने वाली अंगुलियों के सम्पर्क से चित्र-विचित्र सी दीखने वाली मुरलिका को पकड़कर अपने मुख-कमल पर लगाये हुए हैं और उससे परम मधुर राग अलाप रहे हैं, ऐसे आप समस्त भुवनों को आनन्दित करने वाले उस प्रत्यक्ष प्रकट हुए नादामृत से मेरी कर्ण गली को सींच दीजिए।।5।।
आपका कोमल कण्ठदेश उद्दीप्त कौस्तुभ मणि की शोभा-पंक्तियों से अरुणायमान हो रहा है, वक्षःस्थल श्रीवत्स से सुशोभित है तथा हिलते हुए अतिशय प्रभाशाली हारसमूहों से उसकी अद्भुत शोभा हो रही है, गले में पहनी हुई नाना प्रकार के रंग-बिरंगे पुष्प समूहों तथा पल्लवों से गुँथी वनमाला घुटने तक लटक रही है तथा उस पर चञ्चल भौंरे मँडरा रहे हैं; इसी प्रकार आपकी छाती पर मैं रत्नमाला की भी भावना करता हूँ।।6।। |
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