श्रीनारायणीयम्
सप्तनवतितमदशकम्
जब मार्कण्डेय जी को दीर्घायु प्राप्त हो गयी, तब वे पुनः आपके भजन में तत्पर हो गये; क्योंकि निरतिशय सुखरूप आपके भजन में उनकी बड़ी श्रद्धा थी। पुष्पभद्रा नदी के तट पर तपस्या करते हुए उन्होंने छः मन्वन्तर का समय व्यतीत किया। सातवें मन्वन्तर के प्रारंभ में सप्तम देवराज इंद्र ने अप्सराओं, वासन्ती शीतल मन्द सुगन्ध वायु और कामदेव को भेजकर मार्कण्डेय जी को मोहित करने की चेष्टा की; परंतु उनके योग की ऊष्मा से इंद्रानुचरों के शरीर संतप्त हो उठे, अतः वे भाग खड़े हुए और इंद्र उनके द्वारा मार्कण्डेय जी को मोहित न कर सके। भला, आपके भक्त को कौन जीत सकता है?।।5।।
तदनन्तर हे नर के सखा! नरायणस्वरूप आप उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उनके पास आ गये। तब मार्कण्डेय जी प्रसन्नतापूर्वक आपकी स्तुति करने लगे। आपने विविध प्रकार के वरदानों द्वारा उन्हें लुब्ध करना चाहा, परंतु उन्होंने किसी भी वर को स्वीकार नहीं किया; क्योंकि उनका मन आपकी भक्ति से ही पूर्णतया तृप्त था। तत्पश्चात् उन्होंने आपकी माया देखने की इच्छा प्रकट की; क्योंकि जिसे मायाजनित दुःख का ज्ञान नहीं रहता, वह आश्चर्यवश उसका भी अनुभव करना चाहता है।।6।। |
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