श्रीनारायणीयम्
पञ्चमदशकम्
इस प्रकार द्विपरार्ध काल के समाप्त होने पर जब आप में सृष्टि निर्माण की इच्छा उत्पन्न होती है, उस समय आपकी दृष्टि को प्राप्त कर माया स्वयं त्रैलोक्य रूप से विवर्तन करने के लिए क्षुब्ध हो उठती है। तब उस माया से ईश्वर की कालशक्ति, जीवों का सुकृत-दुष्कृत रूप अखिल अदृष्ट और स्वभाव भी प्रकट होकर तीनों गुणों का विकास करके उस माया की सहायता करने लगते हैं।।3।।
आप मायोपाधिक तथा अनुपहित स्वरूप द्वारा उपलक्षित हैं, ऐसे आपको वेदान्त ने सबका साक्षी बतलाया है। जीव भी आपके अतिरिक्त अन्य नहीं है। आप ही भेदों का आश्रय लेकर प्रतिबिम्ब रूप से उस माया में प्रविष्ट हुए हैं। तदनन्तर काल-कर्म-स्वभाव द्वारा संक्षुब्ध हुई तथा आप द्वारा प्रेरित स्वयं उस माया ने ही ऐसे बुद्धितत्त्व की रचना की है, जिसे महत्त्वत्त्व कहा जाता है।।4।। |
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