श्रीनारायणीयम्
चतुस्त्रिंशत्तमदशकम्
पुनः महर्षि अगस्त्य को नमस्कार करके तापसों का प्रिय करने की इच्छा से आपने उनसे सारे राक्षस-समुदाय के वध की प्रतिज्ञा की। तत्पश्चात् मुनिवर अगस्त्य ने आपको दिव्य वैष्णव धनुष तथा ब्रह्मास्त्र प्रदान किया। आगे बढ़ने पर मार्ग में आपको अपने पिता के मित्र जटायु का दर्शन हुआ। तब गोदावरी के तट पर स्थित पञ्चवटी में आप पत्नी सहित हर्षपूर्वक निवास करने लगे।।7।।
एक दिन वहाँ शूर्पणखा नाम की राक्षसी जा पहुँची। (आपको देखकर) कामदेव के वशीभूत होने से उसका धैर्य छूट गया। उसने आपसे प्रार्थना की, परंतु उसे सहन न करके आपने शूर्पणखा को सुमित्राकुमार लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने अतिशय क्रुद्ध होकर उसकी नाक काट ली (तब वह अपने भ्राता खर के पास पहुँची।)। शूर्पणखा की वह दुर्दशा देखकर रुष्टचित्त खर, दूषण और त्रिशिरा आप पर टूट पड़े। तब आपने उन्हें उसी क्षण दस हजार से भी अधिक राक्षसों सहित मृत्यु के हवाले कर दिया, परंतु आपके उत्साह और तेज को कोई क्षति नहीं पहुँची।।8।। |
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