श्रीनारायणीयम्
एकविंशतितमदशकम्
सिन्धुशायिन्! महापुरुषगण आपके शिंशुमार (सूँस)- रूप की तीनों संध्याओं में उपासना करते हैं। आपके उस शरीर के पूँछ आदि अवयवों में उपासकों ने सभी ध्रुव आदि भक्तों, अश्विनी आदि नक्षत्रों तथा सूर्यादि ग्रहों की कल्पना कर रखी है। भगवान्! मेरे नरक-पात का निवारण कीजिए।।11।।
पाताललोक में आपकी शेषमूर्ति विद्यमान है, जिसके एक हजार फण हैं और जो हिलते हुए एकमात्र कुण्डल से सुशोभित है। उस पर नीलाम्बर शोभा पा रहा है। उसके हाथ में आयुध रूप में हल वर्तमान है और नागिनियाँ उसकी सेवा कर रही हैं। ऐसे आपका मैं भजन करता हूँ। गुरुहेगनाथ! मेरे रोगों को हर लीजिए।।12।। ।।इति जम्बूद्वीपादिषु भगवदुपासना प्रकारवर्णनम् एकविंशतितम दशकं समाप्तम्।। |
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