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बिखरे सुमन
- भगवान श्रीकृष्ण भक्तवांछाकल्पतरू हैं। उनका यह अवतार भक्तों को सुख देने के लिये ही हुआ है। भक्तों को सुख देकर प्रसन्न होना, यह श्रीकृष्ण का सहज स्वभाव है। यशोदा मैया डराती हैं, धमकाती हैं, ऊखल में बाँधती हैं और भगवान् रोते हैं- यह सब यशोदा के वात्सल्य रस को पुष्ट करने के लिये है। इस लीला की अन्तिम झाँकी यही है कि यशोदा को अपनी भूल पर पश्चात्ताप होता है, उनके हृदय में वात्सल्य का समुद्र उमड़ आता है और वे अपने कन्हैया को छाती से लगाकर स्नेहाश्रुओं की वर्षा करती हुई एक अनिर्वचनीय सुख में डूब जाती हैं। सखाओं को पीठ पर चढ़ाना उन्हें सख्यरस का आस्वादन कराने के लिये होता है तथा श्री राधा रानी की इच्छा के अनुरूप सखी आदि का वेष धारण करके वे उन्हें दिव्यातिदिव्य माधुर्य-रस-सिन्धु में निमग्र करते रहते हैं। इन लीलाओं में भगवान् को, उनके परिकारों को तथा प्रेमी भक्तों को कितना आनन्द होता है- यह वाणी का विषय नहीं है। यह सुख और यह रस केवल स्वानुभवगम्य है। इसका आस्वादन श्रीप्रिया-प्रियतम की अहैतु की कृपा से ही सम्भव है।
- श्रीकृष्ण-प्रेम का यह स्वभाव है कि भक्त अपने को तो भूल जाता है, पर श्रीकृष्ण के साथ अपना सम्बन्ध क्या है और उनकी सेवा क्या, कैसे करनी है- यह कभी नहीं भूलता।
- भगवान् जगत् में आते हैं रसास्वादन के लिये, अपने दिव्य आनन्दरस का स्वंय पान करने के लिये- अपने सखाओं के द्वारा सख्यरस का, अपने प्रेमियों द्वारा मधुर रस का और अपने माता-पिता आदि के द्वारा वात्सल्यरस का। इन रसों का भगवान् स्वंय आस्वादन करते हैं और अपने माता-पिता-सखा आदि को कराते हैं।
- भगवान् का जन्म अलौकिक है। वात्सल्यप्रेममयी कौसल्या या देवकी-यशोदा को इस प्रकार की प्रतीति होती है कि मेरे पेट में बालक है तथा गर्भ के लक्षण भी दीखते हैं। पर वास्तव में भगवान् न तो जीव की भाँति गर्भस्थ होते हैं औन न माता के खाये हुए अन्न से उनका शरीर बनता है। जो गर्भस्थ होता है तथा माता के खाये हुए अन्न से बनता है, वह अविनाशी नहीं होता, न दिव्य ही होता है। पर भगवान् का शरीर तो सच्चिदानन्दस्वरूप है, भगवान् ही है।
- अन्तर्यामीरूप में भगवान् सबके हृदय में हैं, पर प्रेमियों के हृदय में वे प्रेम के सम्बन्ध-रूप् से रहते हैं, जैसे वात्सल्यभाव वाले के हृदय में पुत्र रूप में, माधुर्य भाव वाले के सखा रूप् में, सख्यभाव वाले के सखारूप में।
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