- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 93 में इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर वे सभी महर्षि इच्छानुसार कमल के फूल और मृणाल लेकर प्रसन्नतापूर्वक सरोवर से बाहर निकले। फिर बहुत परिश्रम करके उन्होंने अलग-अलग बोझ बांधे। इसके बाद उन्हें किनारे पर ही रखकर वे सरोव के जल से तर्पण करने लगे। थोड़ी देर बाद जब वे पुरुष प्रवर पानी से बाहर निकले तो उन्हें रखे हुए अपने वे मृणाल नहीं दिखाई पड़े। तब वे ऋषि एक-दूसरे से कहने लगे- अरे! हम सब लोग भूख से व्याकुल थे और अब भोजन करना चाहते थे। ऐसे समय में किस निर्दयी ने हम पापियों के मृणाल चुरा लिये। शत्रुसूदन! वे श्रेष्ठ ब्राह्मण आपस में ही एक-दूसरे पर संदेह करते हुए पूछ-ताछ करने लगे और अन्त मे बोले- ‘हम सब लोग मिलकर शपथ करें' शपथ की बात सुनकर सब-के-सब बोल उठे- ‘बहुत अच्छा’। फिर वे भूख से पीड़ित और परिश्रम से थके मांदे ब्राह्मण एक साथ ही शपथ खाने का तैयार हो गये।
अत्रि बाले- जो मृणाल की चोरी करता हो उसे गाय को लात मारने, सूर्य की ओर मुंह करके पेशाब करने और अनध्याय के समय अध्ययन करने का पाप लगे।
वसिष्ठ बोले- जिसने मृणाल चुराये हों उसे निसिद्व समय में वेद पढ़ने, कुत्ते लेकर शिकार खेलने, संन्यासी होकर मनमाना बर्ताव करने, शरणागता को मारने, अपनी कन्या बेचकर जीविका चलाने तथा किसान का धन छीन लेने का पाप लगे।
कश्यप ने कहा- जिसने मृणालों की चोरी की हो उसको सब जगह सब तरह की बातें कहने, दूसरों की धरोहर हड़प लेने और झूठी गवाही देने का पाप लगे। जो मृणालों की चोरी करता हो उसे मांसाहार का पाप लगे। उसका दान व्यर्थ चला जाये तथा उसे दिन में स्त्री के साथ समागम करने का पाप लगे।
भरद्वाज बोले- जिसने मृणाल चुराया हो उस निर्दयी की धर्म के परित्याग का दोष लगे। वह स्त्रियों, कुटुम्बीजनों तथा गौओं के साथ पापपूर्ण बर्ताव करने का दोषी हो और ब्राह्मण को वाद-विवाद में पराजित करने का पाप लगे। जो मृणाल की चोरी करता हो, उसे उपाध्याय (अध्यापक या गुरु) को नीचे बैठाकर उनसे ऋग्वेद और यजुर्वेद का अध्ययन करने और घास-फूस की आग में आहुति डालने का पाप लगे।
जमदग्नि बोले- जिसने मृणालों का अपहरण किया हो, उसे पानी में मलत्याग करने का पाप लगे, गाय मारने का अथवा उसके साथ द्रोह करने का तथा ऋतुकाल आये बिना ही स्त्री के साथ समागम करने का पाप लगे। जिसने मृणाल चुराये हों उसे सबके साथ द्वेष करने का, स्त्री की कमाई पर जीविका चलाने का, भाई-बन्धुओं से दूर रहने का, सब से बैर करने का और एक- दूसरे के घर अतिथि होने का पाप लगे।
गौतम बोले- जिसने मृणाल चुराये हों उसे वेदों को पढ़कर त्यागने का, तीनों अग्नियों का परित्याग करने का और सोम रस का विक्रय करने का पाप लगे। जिसने मृणालों की चोरी की हो उसे वही लोक मिले, जो एक ही कूप में पानी भरने वाले, गांव में निवास करने वाले और शूद्र की पत्नी से संसर्ग रखने वाले ब्राह्मण को मिलता है।[1]
विश्वामित्र बोले- जो इन मृणालों को चुरा ले गया हो, जिस पुरुष के जीवित रहने पर उसके गुरु और माता तथा पिता का दूसरे पुरुष पोषण करें उसको और जिसकी कुगति हुई हो तथा जिसके बहुत से पुत्र हों उसको जो पाप लगता है वह पाप उसे लगे। जिसने मृणालों का अपहरण किया हो, उसे अपवित्र रहने का, वेद को मिथ्या मानने का, धन का घमण्ड करने का, ब्राह्मण होकर खेत जोतने का और दूसरों से डाह रखने का पाप लगे। जिसने मृणाल चुराये हों, उसे वर्षा काल में परदेश की यात्रा करने का, ब्राह्मण होकर वेतन लेकर काम करने का, राजा के पुरोहित तथा यज्ञ के अधिकारी से भी यज्ञ कराने का पाप लगे।[2]
अरुन्धती बोली- जो स्त्री मृणालों की चोरी करती हो, उसे प्रतिदिन सास का तिरस्कार करने का, अपने पति का दिल दुखाने का, और अकेले ही स्वादिष्ट वस्तुऐं खाने का पाप लगे। जिसने मृणालों की चोरी की हो, उस स्त्री को कुटुम्बीजनों का अपमान करके घर में रहने का, दिन बीत जाने पर सत्तू खाने का, कलंकिनी होने के कारण पति के उपभोग में न आने का और ब्राह्मणी होने पर भी क्षत्राणियों के समान उग्र स्वभाव वाले वीर पुत्र की जननी होने का पाप लगे।
गण्डा बोली- जिस स्त्री ने मृणाल की चोरी की हो, उसे सदा झूठ बोलने का, भाई-बन्धुओं से लड़ने और विरोध करने और शुल्क लेकर कन्यादान करने का पाप लगे। जिस स्त्री ने मृणाल चुराया हो उसे रसोई बनाकर अकेली भोजन करने का, दूसरों की गुलामी करती-करती ही बूढ़ी होने का और पाप कर्म करके मौत के मुख में पड़ने का पाप लगे।
धर्मपालन का संकेत
पशुसख बोला- जिसने मृणालों की चोरी की हो उसे दूसरे जन्म में भी दासी के ही घर में पैदा होने, सन्तान हीन और निर्धन होने तथा देवताओं को नमस्कार न करने का पाप लगे।
शुनःसख ने कहा- जिसने मृणालों को चुराया हो वह ब्रह्मचर्य व्रत पूर्ण करके आये हुए यजुर्वेदी अथवा सामवेदी विद्वान को कन्या दान दे अथवा वह ब्राह्मण अर्थववेद का अध्ययन पूरा करके शीघ्र ही स्नातक बन जाये।
ऋषियों ने कहा- शुनःसख! तुमने जो शपथ की है, वह तो ब्राह्मणों को अभिष्ट ही है। अतः जान पड़ता है, हमारे मृणालों की चोरी तुमने ही की है।
शुनःसख ने कहा- मनुवरों! आपका कहना ठीक है। वास्तव में आपका भोजन मैंने ही रख लिया है। आप लोग जब तर्पण कर रहे थे, उस समय आपकी दृष्टि इधर नहीं थी; तभी मैंने वह सब लेकर रख लिया था। अतः आपका यह कथन कि तुमने ही मृणाल चुराये हैं, ठीक है। मिथ्या नहीं है। वास्तव में मैंने ही उन मृणालों की चोरी की है। मैंने उन मृणालों को यहाँ छिपा दिया था। देखिये, ये रहे आपके मृणाल। निष्पाप मुनियों! मैंने आप लोगों की परीक्षा के लिये ही ऐसा किया था। मैं आप सब लोगों की रक्षा के लिये यहाँ आया था। यह यातुधानी अत्यन्त क्रूर स्वभाव वाली कृत्या थी। और आप लोगों का वध करना चाहती थी।[2]
तपोधनों! राजा वृषादर्भि ने इसे भेजा था, किंतु यह मेरे द्वारा मारी गयी। ब्राह्मणों! मैंने सोचा कि अग्नि से उत्पन्न यह दुष्ट पापिनी कृत्या कहीं आप लोगों की हिंसा न कर डाले; इसलिये मैं यहाँ आ गया। आप लोग मुझे इन्द्र समझें। आप लोगों ने जो लोभ का परित्याग किया है, इससे आपको वे अक्षय लोक प्राप्त हुए हैं, जो सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाले हैं। अतः ब्राह्मणों! अब आप लोग यहाँ से उठें और शीघ्र उन लोकों में पदार्पण करें।[3]
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इन्द्र की बात सुनकर महर्षियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने देवराज से ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर वे सब-के-सब देवेन्द्र के साथ ही स्वर्गलोक चले गये।इस प्रकार उन महात्माओं ने अत्यन्त भूखे होने पर और बड़े-बड़े लोगों के अनेक प्रकार के भोगों द्वारा लालच देने पर भी उस समय लोभ नहीं किया। इसी से उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। राजन! इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सभी दशाओं में लोभ का त्याग करे, क्योंकि यह सबसे बड़ा धर्म है। अतः लोभ को अवश्य त्याग देना चाहिये। जो मनुष्य जन समुदाय में इस पवित्र चरित्र का कीर्तन करता है, वह धन एवं मनोवांछित वस्तु का भागी होता है और कभी संकट में नहीं पड़ता है। उसके ऊपर देवता, ऋषि ओर पितर सभी प्रसन्न होते हैं। वह मनुष्य इहलोक में यश, धर्म एवं धन का भागी होता है और मृत्यु के पश्चात् उसे स्वर्गलोक सुलभ होता है।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 106-123
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 124-136
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 124-136
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| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
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| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
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| अन्न और जल के दान की महिमा
| तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य
| गोदान की महिमा
| गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति
| राजा नृग का उपाख्यान
| पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना
| यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन
| गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना
| दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम
| गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य
| व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व
| गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना
| गोदान करने वाले नरेशों के नाम
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| कपिला गौओं की महिमा का वर्णन
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| भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना
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| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
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| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
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| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
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| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
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| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
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