सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सूहा बिलावल
हे मन! यही सम्पूर्ण आनन्द की सीमा है कि विवेकरूप नेत्रों से भगवान् के स्वरूप को भली प्रकार देख। इस (भगवद्ध्यान के) सुख से अधिक अब और कुछ नही है। जैसे चकोर का (चन्द्रमा से) अतिशय प्रेम होता है, ऐसे ही चित्त को भगवत्प्रेम में प्रगाढ़ता से लगा दो और विषय-सुख के लोभ से जो (भोगों की प्राप्ति के लिये) अत्यधिक श्रम है, उसे छोड़ दो। श्रीहरि के उन सुकुमार सुन्दर चरणों का चिन्तन कर, जिनके नखों की ज्योति चन्द्र के समान है और जिनके चलने से चारो ओर (ध्वज, वज्र, यव, अंकुश, कमल आदि) चिह्नों की शोभा (पृथ्वी पर) फैलती है। भगवान् के घुटने बड़े ही सुन्दर हैं और जाँघे हाथी के बच्चे की सूँड के समान (सुढाल एवं सुचिक्कण) हैं। कटिदेश में करधनी शोभित हो रही है। (गहरी) नाभि कुण्ड के समान है, उदरपर तीन श्रेष्ठ रेखाएँ हैं, जिन्हें देखते ही संसार का भय दूर हो जाता है। शेषनाग के समान सुन्दर भुजदण्ड हैं तथा कर-कमलों में (शंख, चक्र, गदा एवं पद्मरूप) आयुध शोभित हैं। स्वर्णकंकण तथा ऐश्वर्यमयी अँगूठी संतों के लिये सदा मंगलदायिनी है। अनेक रंगों वाली विमोहक वनमाला हृदय पर लहराती है तथा भृगुलतारूप रोमावली (भक्त के) भ्रम का नाश करती है। विद्युत के समान चमकता पीताम्बर धारण किये मेघ के समान श्याम शरीर अपनी तेजोराशि से (अज्ञान) अन्धकार को दूर भगाता है। कण्ठ के कौस्तुभमणि की किरणें अत्यन्त सुन्दर हैं और कुण्डल तथा मुकुट की छटा तो अनोखी ही है। चन्द्रमुख की अमृत के समान मन्द मुस्कान समस्त लोकों के नेत्रों को प्रिय लगने वाली है। भगवान् की कमनीय मूर्ति सत्य एवं शील से सम्पन्न है। देवता, मनुष्य, मुनिगण आदि अपने सभी भक्तों को भाने वाली है। (उस दिव्यमूर्ति के) अंग-प्रत्यंग से तरंगों के समान शोभा छलकती रहती है। भला, सूरदास उस शोभा का वर्णन कैसे कर सकता है? |
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