श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. प्रद्युम्न-हरण-शम्बर-मरण
'मैं सबेरे ही शम्बर को देखता हूँ।' प्रद्युम्न के नेत्र अरुण हुए। 'वह महामायावी है; किंतु आपको भी सब मायाओं का ज्ञान है।' मायावती ने सावधान किया- 'उसके माया-युद्ध से केवल सावधान रहें।' प्रातःकाल हुआ और धनुष चढ़ाये प्रद्युम्न भवन से निकले। उन्होंने बाण मारकर शम्बर के मुख्य द्वार पर लगा सिंहध्वज काट दिया। दानव दौड़े- 'यह क्या किया तुमने?' 'मैं तुम्हारा और दुरात्मा शम्बर का काल हूँ।' प्रद्युम्न दहाड़े- 'आज इस दुष्ट को मैं मार दूंगा।' देर तक सोने वाले दानवेन्द्र को डरते-डरते समाचार दिया गया। निद्रा से जगाये जाने के कारण वह क्रुद्ध हो गया। 'उस दासी के पौष्य पुत्र को मार डालो।' आज्ञा मिलते ही दानव अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े; किन्तु शीघ्र शम्बर को पता लग गया कि उसका विरोध करने वाला कितना दुर्घर्ष है। उसके अनुचर मारे गये या आहत होकर भागते रोते आये। अब सेना भेजनी पड़ी। घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया। शम्बर के रथ में सर्परज्जु से बंधे सौ मृग जुते थे। व्याघ्र-चर्म से ढका था उसका रथ किन्तु निकलते ही रथ की ध्वजा टूट गिरी। शम्बर के मस्तक पर काक आकर स्थिर बैठ गया और कठिनाई से उड़ाया जा सका। उन्होंने ललकारा- 'तू बालहत्या का प्रयास करके जीवित रहना चाहता है? कापुरुष। आज तेरा सिर कुत्तों को दे दूँगा।' शम्बर ने बाण वर्षा प्रारम्भ की और शीघ्र दिव्यास्त्र का प्रयोग करने लगा। यह भी व्यर्थ उद्योग था। अन्त में जब उसका रथ ध्वस्त हो गया, मृग मारे गये, कवच कट गया तो वह अन्तर्धान हो गया। मायायुद्ध करना प्रारम्भ किया उसने। प्रद्युम्न प्रत्येक माया-दृश्य नष्ट करते जा रहे थे। सम्मोहित करने का दानव ने प्रयास किया तो वह माया संज्ञास्त्र से नष्ट हो गयी। सिंहों के झुण्ड प्रकट हुए तो शरभास्त्र ने उन्हें अदृश्य कर दिया। सर्प प्रकट हुए किन्तु प्रद्युम्न के सौपर्णास्त्र की भेंट हो गये। अन्त में शम्बर ने भगवती पार्वती से प्राप्त अमोघ स्वर्ण मुद्गर उठाया। मायावती ने पहिले ही इससे सावधान कर दिया था। प्रद्युम्न ने धनुष एक ओर फेंका और हाथ जोड़कर स्तवन करने लगे- 'ह्रीं क्लीं जगदम्बिकायै त्रिपुरसुन्दर्यै नमः।' भगवती षोडश-भुजा सिंहवाहिनी प्रकट हो गयीं। सुप्रसन्न बोलीं- 'वत्स! वरं ब्रूहि।' 'अम्ब!' प्रद्युम्न ने कहा- 'यह मुद्गर मेरा स्पर्श करके कमलमाल बन जाय।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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