श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. प्रद्युम्न-हरण-शम्बर-मरण
उस द्वीप में स्त्रियाँ और शिशु रह गये थे दानवों के। प्रद्युम्न ने मायावती से कहा- 'देवि! मैं शीघ्र मातृचरणों के दर्शन करना चाहता हूँ।' आज प्रातःकाल से महारानी रुक्मिणी का चित्त बहुत प्रफुल्लित था। उन्होंने सब महारानियों को बुला लिया था और कह रही थीं- आज रात्रि के अन्त में मैंने स्वप्न देखा कि कमलनयन श्रीद्वारिकेश ने मुझे पल्लव सहित आम्रफल दिया और मुक्तामाल गले में डाली। एक श्वेतवस्त्रा षोडशी स्त्री कमल लिये मेरे घर आयी और उसने मुझे स्नान कराके कमल पुष्पों की माला पहिनायी। अब भी मेरा वाम नेत्र, वाम भुजा फड़क रही है।' 'यह लो! ये कमललोचन कोई और महारानी लिये इस बार आकाश से उतर रहे है।' एक बार रानियाँ उठकर कक्ष में भागीं। वे अन्तःपुर में अस्त-व्यस्त बैठी थीं। इस स्थिति में वे सम्मुख नहीं पड़ना चाहती थीं। कक्ष में पहुँचकर उन्होंने अपने वस्त्र, केशादि ठीक किये और प्रांगण में देखा- 'यह तो कोई और है। इनके कण्ठ में न कौस्तुभ है न वक्ष पर श्रीवत्स। ये तो बालक लगते हैं और ऐसे चकित देखते हैं जैसे अपरिचित स्थान में आ गये हों।' 'मातः प्रणतोऽस्मि।' प्रद्युम्न ने एक महारानी को देखकर प्रणाम किया। 'कौन है यह बालक?' देवी रुक्मिणी बोल उठीं- 'शारंग धन्वा का रूप-रंग, वही आकृति, वही विशाल लोचन, वही स्वर, वैसे ही देखने की भंगी, वही सहास्य वदन- यह कैसे मिला इसे? मेरा जो पुत्र खो गया- वह कहीं जीवित हो तो इतना ही बड़ा होगा। इसे देखकर मेरा हृदय स्नेह से उमड़ा जाता है।' इसी समय देवर्षि नारद वसुदेव जी के सदन में आ गये थे। वहाँ, श्रीसंकषर्ण छोटे भाई के साथ माता-पिता की चरण-वन्दना करने पहुँचे थे। देवर्षि ने गगन से उतरते ही कहा- 'मैं मंगल-संवाद देने आया हूँ। किन्तु आप सबको देवी रुक्मिणी के सदन में चलना है।' देवर्षि को सबने प्रणाम किया। वसुदेव जी और माता देवकी को भी वे साथ ले आये। रुक्मिणी के आँगन में प्रद्युम्न अभी खड़े ही थे कि देवर्षि ने उनसे कहा- 'वत्स! ये तुम्हारे पितामह और पितामही हैं। ये तुम्हारे पिता हैं और ये पिता के अग्रज हैं। तुम दोनों इनकी चरण-वन्दना करो। इतने में तुम्हारी मातायें स्वयं तुम्हारा स्वागत करने आती हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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