श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
80. गोपी-तालाब
द्वारिका के लोगों ने ग्रहण स्पर्श का स्नान किया सरस्वती में और वे बिन्दु सरोवर के समीप पहुँचे तो उन्हें गोपों ने बल-पूर्वक सरोवर के समीप जाने से रोक दिया। गोपों ने कह दिया- 'श्रीव्रजेश्वरी और श्रीवृषभानु-नन्दिनी अपनी सखियों के साथ स्नान कर रही हैं। उनके स्नान करके हट जाने पर ही और किसी को वहाँ प्रवेश प्राप्त हो सकता है।' द्वारिका के लोगों को आश्चर्य हुआ। कुछ बुरा भी लगा किन्तु तीर्थ में आकर विवाद करना उचित नहीं था और जब उन्होंने बात श्रीकृष्ण तक पहुँचायी तो उन द्वारिकाधीश ने कह दिया- 'गोप मर्यादा की बात कहते हैं। जब तीर्थ एवं देवस्थान में स्थान सङ्कीर्ण हो तो बड़ों को प्रथम अवसर प्राप्त होना चाहिए। वे सब प्रकार हमसे श्रेष्ठ हैं।' तीर्थ-स्नान हुआ और फिर तो मिलकर दोनों समाज दो रहे ही नहीं। इस बार श्रीकृष्णचन्द्र ने बाबा से, मैया से, श्रीवृषभानु जी से आग्रह किया और सबको साथ लेकर द्वारिका आये। बहुत कठिनाई से श्रीव्रजराज मैया यशोदा के साथ तथा श्रीवृषभानु जी पत्नी को लेकर कुछ दिन रहकर व्रज के लिए विदा हो सके किन्तु गोप सखा तथा श्रीराधा अपनी सखियों के साथ श्रीकृष्णचन्द्र के अतिशय आग्रह के कारण वहीं रह गयीं। द्वारिका से कुछ दूरी पर श्रीकीर्तिकुमारी के लिए विश्वकर्मा ने दूसरा नगर ही बना दिया। गोप सखाओं का समाज वहीं अपने परिवार के साथ रहने लगा। श्रीबलराम तो उन लोगों के लिए सदा ही उनके मध्य थे। अब तो सबको लगता था कि दोनों भाई द्वारिका के मुख्य नगर और अपने सदनों में अतिथि के समान आते हैं। रहते तो वे गोपों के इस नवीन नगर में ही हैं। वहाँ गोपियों के अङ्गराग, माल्यादि को विसर्जित करने के लिए जो कुण्ड बनाया गया था वही 'गोपी तालाब के नाम से प्रख्यात हुआ। उसमें प्राप्त होने वाला गोपीचन्दन गोपियों के श्रीअंग से उतरे निर्माल्य अंगराग का ही यह काल परिवर्तित मृत्ति का रूप है।' महारानी रुक्मिणी, सत्यभामा जी प्रभृति प्रायः श्रीकीर्तिकुमारी के सदन पहुँचती थीं और उन्हें अपने यहाँ साग्रह ले आती थीं। एक दिन ऐसे ही मिलने के अवसर पर महारानी रुक्मिणी जी ने कहा- 'बहिन! तुम तो प्रेम की मूर्ति हो। श्रीद्वारिकाधीश के वियोग में इतने वर्ष तुम रह कैसे सकीं? यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो उनके पार्थक्य में एक दिन भी शरीर धारण करने की कल्पना नहीं कर सकती।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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