श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
69. रुक्मी-वध
उपस्थित राजाओं ने भी ताली बजाकर, हँसकर रुक्मी का समर्थन कर दिया। निर्णायकों के इस अन्याय से रुक्मी के छल से श्रीबलराम को क्रोध आ गया। उन्होंने क्रोधावेश में इस बार दस अरब स्वर्णमुद्रा दाँव पर लगायीं। क्रोध से उनका मुख लाल हो गया था और नेत्र अंगार बन चुके थे। जुआ अधर्ण का आश्रय है। इसमें असत्य, छल, कलह एवं विनाश का निवास है। इस बार पासा पड़ने पर भी बलराम जी ही विजयी हुए थे किन्तु रुक्मी ने फिर झट से पासा उठा लिया और चिल्लाया- 'मैं जीता हूँ। सन्देह हो तो इन निर्णायकों से पूछ लो।' इसी समय आकाशवाणी हुई- 'रुक्मी झूठ बोलता है। दाँव श्रीसंकर्षण ने जीता है।' 'देवताओं को मध्य में पड़ने का क्या अधिकार है? सब जानते हैं कि सुर तुम्हारे समर्थक है।' रुक्मी बकता जा रहा था- 'यहाँ ये नृतपितगण निर्णायक हैं और जानते हैं कि तुम अक्ष-क्रीड़ा में अज्ञ हो।' रुक्मी के साथी नरेश हँस रहे थे। देववाणी पर उन्होंने ध्यान देना आवश्यक ही नहीं माना। इससे बलराम जी का क्रोध नियन्त्रण में नहीं रहा। उन्होंने वह स्वर्ण का रत्नजटित भारी अष्टापद उठाया और रुक्मी के सिर पर पटक दिया। सिर फटने से रुक्मी की वहीं मृत्यु हो गयी। कलिंगराज जयत्सेन भागा, किन्तु दसवें पद पर ही उसे पकड़कर श्रीबलराम ने पटक दिया और अष्टापद के प्रहार से उसके दाँत तोड़ दिये। दूसरे भी सभी राजाओं को अपने किये का फल भोगना पड़ा। उनमें-से कोई ऐसा नहीं निकल सका जिसका कोई अङ्ग-भङ्ग न हुआ हो। सब घायल होकर रक्त से लथपथ वहाँ से प्राण लेकर भागे। राजभवन में हा-हाकार मच गया, किन्तु क्रोध में भरे श्रीसंकर्षण से कुछ कहने का साहस किसी को नहीं हुआ। वे भी उठे और अपने आवास पर चले आये। श्रीकृष्णचन्द्र को अपने साले रुक्मी को अन्त्येष्टि की व्यवस्था करनी पड़ी। उसका और्ध्वदैहिक कृत्य सम्पन्न हो जाने पर उसके पुत्र का राज्याभिषेक करके सब अनिरुद्ध को उनकी नव-वधू सहित लिये विदा हुए। जितने उत्साह, उल्लास सहित यह बारात आयी थी, उतनी ही अधिक उदासी मौन सहित सब भोजकटपुर में विदा हुए। मर्यादा का अतिक्रम करके किया जाने वाला यह संबंध तत्काल अनिष्टकर हो गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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