श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
'वे सर्वेश्वर आवेंगे? अभी तक तो उनके आने का कोई समाचार नहीं मिला।' राजकुमारी के प्राण अटके थे इसी आशा में कि उसकी आर्तपुकार द्वारिका पहुँच गयी होगी। केवल तीन रात्रि रह गयीं मेरे विवाह को और अभी तक वे कमलनयन आये नहीं।' रुक्मिणी के लिए पल-पल युग हो रहा था। उनकी दृष्टि बहिर्द्वारपर ही लगी रहती थी- 'वे विप्रवर आये नहीं, क्या हो गया उन्हें? मैं ही भाग्यहीना हूँ। वे मेरे आराध्य- वे सर्वज्ञ, सर्वगुणालय, उन्हें मुझमें कुछ दोष दीखा होगा, तभी तो नहीं आ रहे हैं।' 'आना चाहें तो उन्हें पहुँचने में विलम्ब कैसे होगा। गरुड़ उनके वाहन हैं। इस मगधराज और उसके साथियों को सत्रह बार रौंदा है उन्होंने। वे आना नहीं चाहते होंगे तभी तो नहीं आये।' राजकुमारी का हृदय व्याकुल है- 'लगता है कोई देवता- कोई महान देवता मेरे किसी अपराध से रुष्ट है। विधाता मेरे प्रतिकूल है? भगवान गंगाधर अनुकूल नहीं? पर मैंने विधाता का क्या बिगाड़ा? सदाशिव तो आशुतोष हैं। रुद्राणी, सती, गिरजा ही तो कुमारी कन्या की आराध्या हैं, वही तो कन्या के सौभाग्य का विधान करती हैं। सुना है, उन महाशक्ति की कृपा के बिना श्रीकृष्ण के अन्तःपुर का कैंकर्य नहीं मिलता, वे कात्यायनी गौरी मुझसे विमुख हैं?' 'देवी गौरी विमुख हैं?' लगा कि हृदय विदीर्ण हो जायेगा। नेत्र झरने लगे। मन-प्राण तो रट ही रहे थे एक स्वर से 'कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण!' आर्त- अतिशय आर्त निश्वास में नीरव स्वर- माँ!.....' जगद्धात्री का सिंहासन भी हिल उठे ऐसी प्राण की पुकार- वे वात्सल्यमयी स्वयं व्याकुल हो उठीं और राजकन्या के वामनेत्र की ऊपरी पलक, वाम भुजा सहसा फड़कने लगी। रुक्मिणी के हृदय में आशा-आनंद की प्रकाश किरण प्रकट हुई- 'ये शकुन! वे आ रहे हैं क्या?'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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