श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
'श्रीकृष्ण अकेले गये हैं। पूरे वेग से गया है उनका गरुड़ध्वज रथ। हमारा वहाँ पहुँचना व्यर्थ हो जायेगा यदि हम उनसे पीछे पहुँचते हैं।' श्रीसंकर्षण, छोटे भाई को युद्ध करना पड़ेगा अकेले, इस सम्भावना से ही आवेश में आ गये थे। उन्होंने कहा- 'सब लोग अपने नेत्र बंद कर लें। तब तक बन्द रखें जब तक मेरा शंख नहीं बजता।' श्रीकृष्णचंद्र का रथ पूरे वेग से गया। दूसरा कोई रथ विश्व में उसके समान गति नहीं पकड़ सकता और यादव-वाहिनी में तो रथ ही नहीं है, अश्व हैं, गज सेना और पदातिसेना भी है। इस सेना की सफलता तभी है जब यह श्रीकृष्णचन्द्र के विदर्भ पहुँचने से पूर्व उनके साथ मार्ग में मिल जायें। लेकिन अनन्त-पराक्रम, भगवान अनन्त का संकल्प-ब्राह्मणों के उद्भव और प्रलय जिनके संकल्प से होते हैं, उनका संकल्प- समस्या कहाँ थी वहाँ कोई। यादव सेना के सभी लोगों को लगा कि उन्होंने क्षण भर को नेत्र बन्द किये और श्रीसंकर्षण शंख गूँजने लगा। नेत्र खोलने पर कुछ क्षण लगा उन्हें यह समझने में कि विदर्भ की सीमा पर पहुँच गये हैं। उन्होंने नेत्र खोला और देखा कि गरुड़ध्वज रथ सामने ही है और खड़ा हो गया है। 'तुम केवल राजकन्या को ले आओगे।' अग्रज ने कोई उलाहना नहीं दिया। आदेश दिया पहुँचते ही- 'शेष सब हम सब पर छोड़ दो।' ब्राह्मण देवता देखते ही रह गये। इतनी विशाल चतुरंगिणी सेना कब प्रस्तुत हुई? कब चली? किधर से कैसे आ गयी? वह भी तो द्वारिका से ही आ रहा है और ऐसे उड़ने वाले रथ में आया है। श्रीकृष्णचन्द्र ने चकित ब्राह्मण की ओर सस्मित देखा- 'हम सब कुण्डिनिपुर से बहुत दूर नहीं हैं। आप रथ से साथ चलेंगे?' 'नहीं! आप मुझे यहीं उतार दें। मैं आपके यहाँ गया था, यह समाचार नगर में नहीं फैलना चाहिए। मैं पैदल भी अब शीघ्र पहुँच जाऊँगा।' ब्राह्मण देवता वहीं रथ से उतर गये। एक अश्वारोही महाराज भीष्मक के पास चला गया समाचार देने कि उनकी कन्या का विवाह देखने द्वारिका से बलराम-श्रीकृष्ण आये हैं अपने परिकर के साथ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज