श्रीकृष्णांक
रास-लीला में आध्यात्मिक तत्त्व
आगे चलकर जब भगवान अदृश्य हो गये हैं, तब रोती हुई गोपियाँ कह रही हैं- हे भगवान ! आप हमारे वक्षःस्थल पर उन कल्याणकारी चरणों को रखिये जो भक्तों की कामनाएँ पूर्ण करने वाले हैं, लक्ष्मी के द्वारा पूजित हो चुके हैं, पृथ्वी के आभूषण हैं और आपत्तिग्रस्त मनुष्यों के ध्येय हैं।फिर जब भगवान के दर्शन होते हैं, तब गोपियाँ उन्हें नेत्र की राह से हृदय में बैठाकर आँखें बन्दकर इस प्रकार आनन्दमग्न हो जाती हैं, जैसे कोई परम योगी हो- तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च । ऐसे प्रसंगों के रहते हुए भी रासलीला को दूषित कहना और काम-वासनाजन्य बतलाना कहाँ तक न्याय संगत होगा ? सभ्य-समाज का बाल डैंस भले ही कामोद्दीपक हो; गवाँर अहीरों का डण्डा नाच या इसी तरह का अन्य नाच भले ही असभ्य कहा जाय, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण की यह रासलीला तो एक विलक्षण ही लीला थी, जिसका रहस्य समझना सर्वसाधारण के लिये सहज नहीं। भगवान की पूर्णता सच्चिदानन्दत्व में है। उनके ‘सत्’ की कथा-पराक्रम, शक्ति अथवा सत्ता की कथा मत्स्य, कच्छप, नृसिंह, वामन, परशुराम आदि अवतारों में भी मिल सकती है। उनके ’चित्’ की कथा-ज्ञान, कर्तव्यनिष्ठा, चैतन्य आदि की कथा राम, बुद्ध, व्यास आदि अवतारों में भी मिल सकती है। परन्तु उनके ’आनन्द’ की कथा-उनके माधुर्य, सौन्दर्य, प्रेम, आदि भावों की कथा केवल श्रीकृष्णावतार में और उनकी इस रासलीला ही में भलीभाँति दृष्टिगोचर होती है। इसलिये यह कहा जा सकता है कि भगवान की यह रासलीला ही भगवान के पूर्णावतार के रहस्य को भलीभाँति प्रकट कर रही है। अधर अरुणारे मुरलीवारे । चतुर्मुख ब्रह्मा वेणु बजावैं । -भगवती मंजुकेशी देवी
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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