कृष्णांक
गीता के वक्ता श्रीकृष्ण
भगवान को तत्वत: कोई कैसे जान सकता है, इसे वह आगे 18वें अध्याय में फिर बतलाते हैं– भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वत: । यानी भक्ति से उसे (भक्त को) मेरा तात्विक ज्ञान हो जाता है कि मैं कितना हूँ और कौन हूँ, और इस प्रकार मेरी तात्विक पहचान हो जाने पर वह (भक्त) मुझ में प्रवेश करता है। एक-एक करके सारी शंकाओं का समाधान अन्त में भगवान उनसे यह कहते हैं कि तुम अब व्यर्थ के झमेले में मत पड़ो, मुझ पर विश्वास करो, मेरा भजन करो, तुम्हारा कल्याण होगा। सारे पापों से छुटकारा हो जायेगा और अन्त में मेरी प्राप्ति होगी। मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । यानी (हे अर्जुन) मुझमें अपना मन रखो, मेरे भक्त हो, मेरा भजन करो और मुझे नमस्कार करो। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि (इससे) तुम मुझमें ही आ मिलोगे, क्योंकि तुम मेरे प्यारे (भक्त) हो। (और अब निश्चिन्त होकर) सब धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त करूँगा, शोच मत करो। भगवान के इन वचनों को स्मरण करके भी उन पर विश्वास न हो, उनके चरणों में आत्म समर्पण न करते बने, इससे बढ़कर आश्चर्य की और कौनसी बात हो सकती है ? अतएव अपने-अपने धर्मानुसार समस्त व्यवहार करते हुए श्रीकृष्णार्पण बुद्धि से भक्तिपरायण हो हाथ जोडकर विनयपूर्वक भगवान से सदा यह प्रार्थना करनी चाहिये कि हे प्रभो ! – कीटेषु पक्षिषु मृगेषु सरीसृपेषु |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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