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उन अनन्त लोकों के ऊपर गोलोक-धाम है। उसकी भूमि चिन्मयी है तथा उसके सम्पूर्ण वृक्ष-लतादि भी दिव्य तेजोमय हैं। उनसे आनन्द की किरणें छूटती हैं। वहाँ की सभी रचना आनन्दमयी है। जिस आनन्द का एक लेश ही अनन्त ब्रह्माण्डों का पालन कर रहा है, वही वहाँ लबालब भरा हुआ है। उसी का नाम रस है, जिसको श्रुतियों ने ‘रसो वै स:’ कहकर वर्णन किया है। इस रस के अनन्त भेद हैं, जिनमें से नौ प्रधान हैं– शान्त, अद्भुत, हास्य, करुणा, श्रृंगार, वीर, भयानक, रौद्र और वीभत्स। ये नवों रस निराकार और साकार-भेद से विराजमान हैं। निराकारूप से ये इस ब्रह्माण्ड में ओतप्रोत हैं और साकाररूप से श्रीगोलोक-धाम में साक्षात रसराज श्रीमहाविष्णु होकर विराजमान हैं, जिनको श्रीराधाकृष्ण नाम से भी कहा जाता है। ये श्रीमहाविष्णु सत्ता, चित्ता और आनन्दता की पूर्ण पराकाष्ठा हैं। ये रसराज एकरस आनन्मदय, विग्रहवान होते हुए भी राधा और कृष्ण दो रूप से विराजमान हैं। इनका वर्णन यजुर्वेद अध्याय 31 के बाईसवें मंत्र में इस प्रकार है– ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ.’ अर्थात आपकी दो पत्नियां हैं एक तो लक्ष्मीजी जो वैकुण्ठ में श्रीनारायण के समीप रहती हैं और दूसरी श्रीजी हैं, जिनका नाम श्रीराधिका महारानी है।
ऋग्वेद के उपनिषद भाग में एक राधिकोपनिषद है। वह इस प्रकार है –
ॐ अथोर्ध्वमंथिन ऋषय: सनकाद्या भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपासित्वोचु: देव क: परमोदेवा का वा तच्छक्तय: तासु च वरीयसी भवतीति सृष्टिहेतुभूताच केति। स होवाच। हे पुत्रका: श्रृणुतेदं हवाव गुह्याद् गुह्यतरमाप्रकाश्यं यस्मै कस्मै न देयम्। स्निग्धाय ब्रह्मवादिने गुरुभक्ताय देयमन्यथादातुर्महदघं भवतीति। कृष्णौ हा वै हरि: परमो देव: षड्विधैश्वर्यपरिपूर्णो भगवान् गोपीगोपसेव्यो वृन्दाआराधितो वृन्दावनाधिनाथ: स एक एवेश्वर: तस्यै ह वै द्वे तनुर्नारायणोअखिलब्रह्माण्डाधिपतिरेकोंश: प्रकृते प्राचीनो नित्य एवं हि तस्यै शक्तयस्त्वनेकधा। आह्लादिनीसंधिनी ज्ञाकेच्छाक्रियाद्या बहुविद्या: शक्तय:। तस्वाह्लादिनी वरीयसी परमान्तरंगभूता राधा:। कृष्णेनाराध्यते इति राधा। कृष्णं समाराधयति सदेति राधिका गांर्ध्वेति व्यपदिश्यत इति अस्या एव कायव्यूहरूपा गोप्यो महिष्य: श्रीश्चेति। ये यं राधा तश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहेनैक: कईडनार्थं द्विधाभूत्। राधा वै हरे: सर्वेश्वरी सर्वविद्या सनातनी कृष्णप्राणाधिदेवी चेति विविक्ते वेदा: स्तुवंति यस्यागतिं ब्रह्मभागा वदन्ति। महिमास्या: स्वायुर्मानेनापि कालेन वक्तुं न चोत्सहे। सैव यस्य प्रसीदति तस्य करतलावकलितं परमं धामेति। एतामविज्ञाय य: कृष्णमाराधयितुमिच्छति स मूढतमो मूढतमश्चेति।
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