कृष्णांक
जगद्गुरु श्रीकृष्ण
उपर्युक्त अन्तिम वाक्य भगवद्गीता के निम्नलिखित श्लोक का एक प्रकार से अक्षरश: अनुवाद है– एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: । इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक पाश्चात्य विद्वान, जो वर्तमान वैज्ञानिक युग की सारी जटिलताओं और परिणामों को जानते हैं और जिन्होंने मानव जाति के अतीत इतिहास का आलोचन किया है, इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि भावी सार्वभौम राष्ट्र को धर्म की आवश्यकता निश्चय ही होगी, उस धर्म के दो रूप होंगे– सामाजिक एवं वैयक्तिक, यद्यपि दोनों आपस में खूब मिल हुए होंगे, उस धर्म का काम होगा मानव-जाति की प्रसन्नतापूर्वक एवं अहंकार छोड़कर सेवा करने के लिये लोगों को प्रात्साहित करना तथा सहयोग-सिद्धान्त के अनुकूल विश्व संचालन की एक व्यवस्था करना और किसी आध्यात्मिक आदर्श को उसका आधार बनाना। प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह अपना कार्यक्षेत्र तथा कार्य की सीमा अर्थात उस व्यवस्था में उसका क्या भाग होगा यह निश्चित कर ले और फिर उसे पूरा करने के लिये प्राणपन से चेष्टा करे। प्रत्येक मनुष्य अपने कार्यक्षेत्र को उस आध्यात्मिक आदर्श की कसौटी पर कसर ही निर्धारित करे।
उपर्युक्त सारी बातें हमें गीता में मिलती है जहाँ सांख्य और योग का समन्वय किया गया है, जहाँ ‘मुक्तसंग’ और ‘अनहंवादी’ कर्ता के लक्षण कहे गये हैं जो उत्साह से पूर्ण एवं सर्व भूतों का हित करने के लिये तत्पर रहता है, जहाँ यज्ञचक्र के रूप में, जिसे चालू रखने के लिये परस्पर सहायता की अपेक्षा रहती है, ‘परस्परं भावयन्त:’ विश्व के संचालन की व्यवस्था बतलायी गयी है, जहाँ स्वकर्म को ही उस परमात्मा की उपासना का साधन बतलाया गया है, जो परमात्मा सारे भूत एवं भविष्य प्राणियों की उत्पत्ति के कारण हैं, जहाँ स्वकर्म का आचरण मनुष्य के लिये अनिवार्य बतलाया गया है, ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय:’ और जहाँ चारों वर्णों की सृष्टि ईश्वरकृत ही बतलायी गयी है ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम्’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3।16
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