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मथुरा के चारों ओर चार शिव-मन्दिर हैं– पश्चिम में भूतेश्वर का, पूर्व में पिघलेश्वर का, दक्षिण में रंगेश्वर का और उत्तर में गोकर्णेश्वर का। चारों दिशाओं में स्थित होने के कारण शिवजी को मथुरा का कोतवाल कहते हैं। वाराहजी की गली में नीलवाराह और श्वेतवाराह सुन्दर विशाल मन्दिर हैं। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाथ ने श्रीकेशवदेवजी की मूर्ति स्थापित की थी। पर औरंगजेब के काल में वह रजधाम में पधरा दी गयी, औरंगजब ने मन्दिर को तोड़ डाला और उसके स्थान में मस्जिद खड़ी कर दी। बाद में उस मस्जिद के पीछे नया केशवदेव जी का मन्दिर बन गया है। प्राचीन केशव मन्दिर के स्थान को केशवकटरा कहते हैं, खुदाई होने से यहाँ बहुत सी ऐतिहासिक वस्तुएं प्राप्त हुई थीं। पास ही एक कंकाली टीले पर कंकालीदेवी का मन्दिर है। कंकाली टील में भी अनेक वस्तुएं प्राप्त हुई थी। यह कंकाली बह बतलायी जाती है जिसे देवकी की कन्या समझकर कंस ने मारना चाहा था, पर जो उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी थी। मस्जिद से थोड़ा सा पीछे पोतराकुण्ड के पास भगवान श्रीकृष्ण की जन्म-भूमि है जिसमें वासुदेव तथा देवकी की मूर्तियां है। इस स्थान को मल्लपुरा कहते हैं। इसी स्थान में कंस के चाणूर, मुष्टिक, कूटशल, तोशल आदि प्रसिद्ध मल्ल रहा करते थे।
नवीन स्थानों में सबसे श्रेष्ठ स्थान श्रीपारखजी का बनवाया हुआ श्रीद्वारकाधीश का मन्दिर है। इसमें प्रसाद आदि का समुचित प्रबन्ध हैं। संस्कृत पाठशाला, आयुर्वेदिक तथा होमियोपैथिक लोकोपकारी विभाग भी हैं। इस मन्दिर के सिवा गोविन्ददेव जी का मन्दिर, किशोरीरमणजी का मन्दिर, वसुदेवघाट पर गोवर्द्धननाथ जी का मन्दिर, उदयपुरवाली रानी का मदनमोहन जी का मन्दिर, विहारी जी का मन्दिर, रायगढवासी रायसेठ का बनवाया हुआ मदनमोहन जी का मन्दिर, उन्नाव की रानी श्यामकुंवरि का का बनाया राधेश्याम जी मन्दिर, असकुण्डा घाट पर हनुमानजी, नृसिंह जी, वाराह जी, गणेश जी के मन्दिर आदि मन्दिर हैं ,जिनमें कई का आय-व्यय बहुत कम है, प्रबन्ध अत्युत्तम है, साथ में पाठशाला आदि संस्थाएं भी चल रही हैं। विश्रामघाटय या विश्रान्तघाट एक बड़ा सुन्दर स्थान है। मथुरा में यही प्रधान तीर्थ है। भगवान ने कंस-वध के पश्चात यहीं विश्राम लिया था। नित्य प्रात:-सांय यहाँ यमुनाजी की आरती होती है जिसकी शोभा दर्शनीय है। यहाँ किसी समय दतिया-नरेश और काशी-नरेश क्रमश: 71 मन और 3 मन सोने से तुले थे, और फिर यह दोनों बार की तुलाओं का सोना व्रज में बांट दिया गया था।
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