कृष्णांक
प्रेमावतार श्रीकृष्ण
तदनन्तर भयभीता देवकी की अनुमति से बालक कृष्ण को वसुदेवजी ने गोकुल में नन्द-यशोदा के घर पहुँचा दिया। वहाँ वसुदेव के कुलगुरु महर्षि गर्ग ने उनका नामकरण संस्कार किया। इनका सर्वगुणसम्पन्न ‘श्रीकृष्ण’ नाम रखा गया, जिसके अर्थ के विषय में ‘कर्षयति सर्वेषां मनांसीति कृष्ण:’ ऐसा कहा जाता है अर्थात जो सबके मन को अपनी ओर आकर्षित करता है, उसे कृष्ण कहते हैं। पण्डितराज श्रीजगन्नाथ ने इस नाम की मधुरिमा का कुछ रसास्वादन किया था, इसीलिये वे अपने जीव से पूछते हैं– मृद्वीका रसिता सिता समसिता स्फीतं निपीतं पय: ‘हे मेरे प्यारे जीव ! तूने दाख भी खायी है, मिश्री का भी आस्वादन किया है, गाढा-गाढा दूध भी पिया है और कई बार स्वर्ग में जाकर अमृत तथा रम्भा के अधररस का भी पान किया है। पर यच बता कि ‘कृष्ण’ इन दो अक्षरों में जो अलौकिक मधुरिमा है, वह क्या तूने कहीं भी पायी है ? वाह रे जगन्नाथ ! तेरी रसना ही असली रसना है, जिसने कि ‘कृष्ण’ इन दो अक्षरों की माधुरी का वास्तविक रस चखा है। अहो बकीयं स्तनकालकूटं ‘अहो ! इस दुष्टा पूतना ने मारने की इच्छा से भगवान को स्तन-पान कराया था, तो भी इसे माता के योग्य गति प्राप्त हुई ! जो ऐसे दयालु हैं, उन भगवान को छोड़कर हम किसकी शरण में जायँ ?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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