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कृष्णांक
श्रीकृष्णोपदिष्ट संन्यास का स्वरूप
श्रीमदभागवत में मोक्ष के दो साधन माने गये हैं– कर्मयोग जिसमें ईश्वर की गाढ़ भक्ति प्रधान हो और कर्म संन्यास जिसमें परमात्मा की पराभक्ति की प्रधानता हो। किन्तु श्रीमद्भागवत में कर्मयोग पर विशेष जोर दिया गया है। और उसके मत में जिस मार्ग में भक्ति की मात्रा अधिक हो वही मार्ग श्रेष्ठ है चाहे वह संन्यास हो अथवा और कोई मार्ग हो। वृन्दावन की गोपियों का श्रीमद्भागवत में इसीलिये अधिक माहात्म्य है। उनके लिये कर्म-संन्यास का तो कोई प्रश्न ही नही था। कर्म संन्यासी उद्धव से उनका स्थान किसी प्रकार नीचा नहीं था, वह तो उलटा उनके चरणरज का भिखारी हो गया था (आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम- भाग. 10।47।61) यदि गीता और भागवत को एक-दूसरे का सहकारी समझे तो मेरी धारणा के अनुसार उन दोनों में मिलाकर भगवान का मुख्य सिद्धान्त जिसमें संन्यास का स्वरूप भी आ जाता है– पूर्णतया प्रतिपादित हुआ है। मेरे विचार से भगवान के उपदेश का आधार समसमुच्चय का सिद्धान्त ही है और उसमें ज्ञान, भक्ति और कर्म का अद्भुत एवं उदात्त समन्वय किया गया है। यहाँ कर्म का अर्थ बहुत व्यापक लेना चाहिये, जिसमें केवल मनुष्यों के ही प्रति नहीं किन्तु जीवमात्र के प्रति, जिनमें देवयोनि और असुरयोनि भी शामिल हैं, कर्तव्य अन्तर्गत हैं। इन कर्तव्यों का पालन संन्यास के भाव से और यज्ञ-पुरुष भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द की पूजा के रूप में करना चाहिये।
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