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कदाचित इसी कठिनाई को दूर करने के लिये श्रीवाचस्पति मिश्र ने अपनी ‘भामती’ नामक ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य की टीका में यह बतलाया है कि कर्मयोग के द्वारा अन्त:करण की शुद्धि होने पर जिज्ञासा उत्पन्न होती है, ज्ञान नहीं। उनके मत में कर्मयोगी के अन्दर ज्यों ही तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न हो, वैसे ही वह सारे विशेष कर्मों का त्याग कर दे। तब साधक कर्म-संन्यास करके श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि संन्यासोचित कर्मों द्वारा मुक्ति के साक्षात साधन ज्ञान को प्राप्त करता है। किन्तु शांकरमत के एक दूसरे विवरणकार को यह मानने में आपत्ति है। उनका कहना है कि यदि कर्म से विविदिषा (जिज्ञासा) के अतिरिक्त और कोई फल नहीं होता तो ऐसी दशा में ज्ञान का उदय तो एक आकस्मिक घटना हो जाती है, क्योंकि उसके लिये यह आवश्यक है कि कोई योग्य ब्रह्मनिष्ठ गुरु मिले और श्रवण, मनन, निदिध्यासन के लिये वातावरण भी अनुकूल हो, अत: उनके मत में कर्म का फल केवल जिज्ञासा नहीं, अपितु ज्ञान भी है। परन्तु श्रवण, मनन और निदिध्यासनरूप विशिष्ट कर्मों के बिना ज्ञान को हो नहीं सकता। अत: कर्म-संन्यास की भी आवश्यकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोग और कर्म-संन्यास के विशिष्ट कर्तव्य मिलकर ज्ञान को उत्पन्न करते हैं।
उनके मत में कर्म-संन्यास का मुख फल काम, क्रोध आदि विकारों से उत्पन्न होने वाले चित्त-विक्षेप की निवृत्ति ही है। किन्तु संन्यास को छोड़कर ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ आदि अन्य आश्रमों में भी लोग चित्त-विक्षेप से मुक्त हो सकते हैं और अपने विशेष कर्तव्यों के बीच में श्रवण, मनन और निदिध्यासन के लिये भी समय निकाल सकते हैं, अत: उनके लिये कर्म-संन्यास की कोई आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रश्न को हल करने के लिये विवरणकार यह कहते हैं कि श्रवण, मनन और निदिध्यासन का अन्य कर्मों के बीच-बीच में अभ्यास किया जाता है, उससे ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती, किन्तु इसके निरन्तर अभ्यास से ही ज्ञान का उदय हो सकता है। अपने इस मत की पुष्टि के लिये उपर्युक्त विवरणकार ने ‘ब्रह्मसंस्थोअमृतत्वमेति’ यह श्रुति वाक्य उद्धृत किया है, जिसका भाव उन्होंने यह बतलाया है कि ‘जो पुरुष ब्रह्म से सम्बन्ध न रखने वाली बातों में सदा लगा रहता है, वही अमरता को प्राप्त होता है’।
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