विषय सूची
श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण के जन्म-कर्मों की अलौकिकता
बल पराक्रम का सदुपयोग दीन-दुखी, असहाय पीड़ितों के रक्षण करने में है, न कि भक्षण करने में। परोपकार में है, न कि स्वार्थ में, इसीलिये जहाँ इसका उपयोग स्वार्थपूर्ति में होता है, वहाँ यह स्वार्थ और स्वार्थी दोनों को ले डूबता है, और उसके पास पहुँचता है जो स्वार्थपरता के मुकाबले में परमार्थ का सहारा लेकर खड़ा होता है। भगवान जन्म लेकर परमार्थ के बल से ही तो परमार्थविरोधी स्वार्थ और स्वार्थियों का अन्त यानि दुष्टों का दलन और साधुओं का संरक्षण करते हैं । यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थों धनुर्धर: । इस श्लोक का सीधा-सादा अर्थ यह है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धर पार्थ हैं वहीं श्री, विजय, ऐश्वर्य और अचल नीति का निवास है और इस श्लोक का प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार के लिए यह विशेषार्थ है कि पराक्रम का प्रतीक धनुर्धर अर्जुन है तथा योग के प्रतीक सारथी भगवान श्रीकृष्ण हैं, इसलिये जहाँ कार्य करने की शक्ति पराक्रम है और पराक्रम का सारथ्य कर्म कुशलता रूप योग करता है, वहाँ श्री, विजय, ऐश्वर्य और नीति निश्चित है, इसी प्रकार से किया हुआ कर्म दिव्यकर्म होता है। भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र ऐसे ही समस्त गुणों से परिपूर्ण और दिव्य है। इतना समय बीत जाने पर भी उनका तेज कुछ भी न घटकर क्रमश: बढ़ रहा है। जिन तत्वों के आधार पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में दिव्य कर्म किये, उन्हीं समस्त तत्त्वों का अपने परमोच्च गीत-गान में अर्जुन को उपदेश किया। उनकी गीता के तत्वों को ध्यानपूर्वक देखने से मालूम होगा कि वही मानो उनके चरित्र की सुन्दर मीमांसा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |