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भगवान श्रीरामचंद्रजी को अपनी प्रजा की रक्षा अनार्यों से करनी थी, पर श्रीकृष्ण के प्रमुख शत्रु अनार्य नहीं थे- आर्य क्षत्रिय ही थे, किन्तु आसुरी सम्पत्ति से भरपूर होने के कारण न्याय-अन्याय का विवेक उनमें नहीं रह गया था। इन शत्रुओं में कंस तथा जरासंध अग्रगण्य थे। कंस तो उनके जन्म के पहले से ही उनका शत्रु बना बैठा था। उसने जन्म के पहले उत्पात किये, जन्म के बाद उत्पात किये- नन्द घर पहुँच जाने के बाद श्रीकृष्ण तथा बलराम का वध करने के लिए पूतना राक्षसी तथा चाणूर मुष्टिक आदि मल्लों को नियुक्त कर दिया। उन्हें गोकुल से मथुरा बुलाया और भी अनेक उपाय उन्हें मारने के किये, पर होनी कुछ और ही थी, भगवान बड़ी चतुराई के साथ उससे पेश आये और शेष में सारे पायकों के साथ उसका अन्त कर डाला। श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान थे। उनकी तो बात ही क्या है ?
किसी भी शासनकाल में जब अन्याय और अत्याचार की पराकाष्ठा हो जाती है, तब प्रजा उससे परित्राण पाने के लिए एकमात्र भगवान को पुकारने लगती है और ऐसे समय में, भगवान ने सही, कोई भी यदि उस निरंकुशता का अंत करने के लिए आगे बढ़कर आता है, तो प्रजा की सहानुभूति और सहायता उसे मिलती है जिससे उसका आत्मविश्वास और बल बढ़ता है और फिर उसके आत्मिक और नैतिक तेज से अत्याचार पूर्ण शासन की जड़ हिल जाती है और वह सदा के लिए उखड़कर भूमिसात हो जाता है। कंस का वध करके श्रीकृष्ण ने सारे देश की श्रद्धा, भक्ति और सहानुभूति प्राप्त की और अपने माता-पिता को बंधन मुक्त करके पुत्रत्व को सार्थक किया। इस कंस वध की लीला में उनके अतुल धैर्य, साहस, बल, बुद्धिमता और नि:स्वार्थता का पता लगता है। भगवान ने यह सब बिलकुल नि:स्वार्थ बुद्धि से किया। कंस को मारने के बाद मथुरा का राज्य उनके हाथ में आ चुका था, पर उस राजगद्दी पर वह नहीं बैठे। बैठते भी कैसे, जब उनका कंस को मारने का हेतु केवल दुष्टदलन ही था ! इसी में उनकी ईश्वरता थी। जरासंध की लड़किया कंस को ब्याही थीं। कंस के मारे जाने के बाद वे सब अपने पिता के घर गयीं और पिता को इसका बदला लेने के लिए प्रोत्साहित किया।
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