श्रीकृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
व्यवसायात्मिका बुद्धि का चौथा रूप वैराग्य है, जो कि राग-द्वेष का विरोधी है। इसकी पूर्णता का चिह्न यह है कि सब काम करता हुआ भी -पूर्णरूप से संसार में रहता हुआ भी सबमें अनासक्त रहे, किसी बन्धन में न आवे। कमलपत्र की तरह निर्लिप्त बना रहे। संसार छोड़कर अलग हो जाना अभ्यासवश जीवों में सम्भव है, किन्तु संसार में रहकर सर्वथा निर्लिप्त रहना शुद्ध ऐश्वर्य धर्म है। भगवान श्रीकृष्ण के चरित्रों में आदि से अन्त तक वैराग्य का (राग-द्वेष शून्यता का) पूर्ण विकास है। कहाँ बाल्यकाल का गोप-गोपियों के साथ, नन्द-यशोदा के साथ वह प्रेम कि जिसमें बँधकर एक क्षण वे बिना श्रीकृष्ण के न रह सकते थे और कहाँ यह आदर्श निष्ठुरता कि अक्रूर के साथ मथुरा जाने के बाद आप एक बार भी वृन्दावन नहीं गये। उद्धव को भेजा, बलराम को भेजा, उन्हें सान्त्वना दी, किन्तु अपना ‘बेलागपन’ दिखाने को एक बार भी किसी से मिलने को स्वयं उधर मुख नहीं किया। पहले गोपियों के साथ रासलीला करते समय ही मध्य में अन्तर्धान होकर अपनी निरपेक्षता आपने दिखा दी थी, प्रकट होने पर जब गोपियों ने व्यंग्य से प्रश्न किया कि अपने साथ प्रेम करने वालों से भी जो प्रेम नहीं करते, उनका क्या स्थान ? तब आपने कहा था कि वे दो ही हो सकते हैं- ‘आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः’ या तो पूर्ण ज्ञानी या कृतघ्न। साथ ही अपना स्वभाव भी आपने बताया था कि ‘नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून् भजाम्यमीषामनुवृत्तिसिद्धये’ बस, इस स्वभाव का पूर्ण निर्वाह आपने किया। यादवों के राज्य का सब काम आप चलाते थे, किन्तु बन्धन रूप कोई अधिकार आपने नहीं ले रखा था, वहाँ भी ‘बेलाग’ ही रहे। महाभारत युद्ध अपनी नीति से ही चलाया, किन्तु बने रहे ‘पार्थ-सारथि’ बहुत से दुष्ट राजाओं को मारा, किन्तु उनके पुत्रों को ही उनके राज्य का अधिकार दे दिया, राज्य लोलुपता कहीं भी न दिखायी। अपने कुटुम्बी यादवों को भी जब उद्धत होते देखा, उनके द्वारा जगत में अशान्ति की सम्भावना हुई तो उनका भी अपने सामने ही सर्वनाश करा दिया। वैराग्य-राग द्वेष शूनन्यता का ही लक्षण ‘समता’है सो आपके आचरणों में ओतप्रोत है, हर एक यही समझता था कि श्रीकृष्ण मेरे हैं, किन्तु वे थे किसी के नहीं, सबके और सबसे स्वतन्त्र। पटरानियों में भी यही दशा थी, रुक्मिणी अपने को पटरानी समझती थी, सत्यभामा अपने को अतिप्रिया मानती थी, सब ऐसा ही समझती थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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