श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और अर्जुन की मैत्री
1. द्वारका में एक ब्राह्मण रहता था, उसके स्त्री के पुत्र हुआ और होते ही मर गया। ब्राह्मण मृत पुत्र की लाश को लेकर राजद्वार पर आया और उसे वहाँ रखकर कातरस्वर से रोता हुआ कहने लगा- ‘ब्राह्मणद्रोही, शठबुद्धि, लोभी, विषयी क्षत्रियाधम राजा के कर्मदोष से ही मेरा बालक मर गया है’। क्योंकि- हिंसाविहारं नृपति दु:शीलमजितेन्द्रियम् । ‘जब राजा हिंसा में रत, दुश्चरित्र और अजितेन्द्रिय होता है, तभी प्रजा को दरिद्रता और अनेक प्रकार के दु:खों से नित्य पीड़ित रहना पड़ता है। यों कहकर लाश को वहीं छोड़ वह ब्राह्मण चला गया। कहना नहीं होगा ब्राह्मण पर राजद्रोह का मामला नहीं चलाया गया था। इस प्रकार उस ब्राह्मण के आठ बालक मर गये और वह उनकी लाशों को राजद्वार पर छोड़ गया। यादवों ने अनेक उपाय भी किये, परन्तु कोई भी उपाय नहीं चला। नवें पुत्र की लाश को लेकर जिस दिन ब्राह्मण राजसभा में आया उस दिन वहाँ दैवात् अर्जुन आये हुए थे। अर्जुन ने कहा ‘देव ! आप क्यों रो रहे हैं, क्या यहाँ कोई भी वीर क्षत्रिय नहीं है जो आप ब्राह्मणों को पुत्र शोक से बचावे, जिन राजाओं के जीवित रहते राज्य में या करने वाले ब्राह्मण धन, स्त्री, पुत्र आदि के वियोग में दु:खी रहते हैं, वे राजा नहीं, वे राजा नहीं, वे तो पेट पालने और विषय भोगने वाले राजवेषी भांड हैं। आपके पुत्रों की रक्षा मैं करुंगा। ब्राह्मण ने कहा- ‘भगवान संकर्षण, भगवान वासुदेव, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध नहीं बचा सके, तब तुम क्यों कर बचाओगे ? अर्जुन ने अभिमान से कहा ‘मैं संकर्षण, कृष्ण, प्रद्युम्न या अनिरुद्ध नहीं हूं[2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 81। 25
- ↑ मैं तो श्रीकृष्ण का भक्त हूं, जो काम श्रीकृष्ण नहीं कर सकते, वह मैं उन्हीं के बल पर कर सकता हूं, क्योंकि मेरे लिए उन्हें अपनी मर्यादा से परे भी काम करने पड़ते हैं।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |