श्रीकृष्णांक
अद्भुतकर्मी श्रीकृष्ण
श्रीनारदजी ने सोचा कि भगवान के सोलह हजार एक सौ आठ रानियां हैं, वे अकेले सबके महलों में कब और कैसे जाते होंगे ? इसी कौतुक को देखने के लिए नारदजी द्वारका आये और सीधे श्रीरुक्मिणीजी के महलों में चले गये। नारदजी ने वहाँ श्रीभगवान को बैठे तथा श्रीरुक्मिणीजी को उनकी सेवा करते देखा। नारदजी को देखते ही धार्मिकश्रेष्ठ भगवान ने सहसा उठकर मुनि का स्वागत किया। मुनि ने स्तुति करके दूसरे महल में जाने का विचार किया। वे दूसरे महल में गये। वहाँ भगवान को उद्धव के साथ खेलते देखा। वहाँ से तीसरे में गये। यों प्रत्येक महल में नारद घूमे परन्तु भगवान पूजन कर रहे हैं, कहीं स्नान करने जा रहे हैं, कहीं बच्चों को खिला रहे हैं, कहीं शस्त्र चला रहे हैं, कहीं घोड़े या हाथी पर सवार होकर बाहर जाने को तैयार हैं, कहीं सो रहे हैं, कहीं मंत्रियों से गुप्त परामर्श कर रहे हैं, कहीं ब्राह्मणों को दान दे रहे हैं, कहीं इतिहास पुराणादि सुन रहे हैं। सारांश यह है कि भगवान सब महलों में मौजूद हैं। योगेश्वर भगवान की इस लीला को देखकर नारदजी मुग्ध हो गये। भगवान परमधाम पधारने की इच्छा से वन में एक वृक्ष के नीचे शान्त भाव से बैठे थे। इस समय की आपकी शोभा अनिर्वचनीय थी। व्याध के वाण को निमित्त बनाना शेष था, आप उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। इतने ही में व्याध ने दूर से भगवान के मृगाकार-चरण को मृग समझकर उसने बाण मारा, परन्तु समीप आकर भगवान को देखते ही वह भय के मारे भगवान के चरणों पर गिरकर कहने लगा कि- हे मधुसूदन ! मैं महापता की हूं, मुझसे अनजाने में यह अपराध हो गया है। हे प्रभो ! क्षमा कीजिये। भगवान ने हंसते हुए कहा- ‘भाई ! उठ, तू डर मत, इसमें तेरा कोई अपराध नहीं है। मेरी ही इच्छा से से यह कारण बना है। तू दिव्य स्वर्गलोक को जा। भगवान के इतना कहते ही दिव्य विमान आ गया और वह भगवान को प्रणाम प्रदक्षिणा कर विमान पर सवार होकर स्वर्ग को चला गया। तदनन्तर भवगान का गरुड चिन्हवाला रथ घोड़े तथा ध्वजा आदि सामग्री सहित आकाश में उठकर अदृश्य हो गया। भगवान ने अपने सारथि दारुक को मोक्ष पाने का वरदान देकर वहाँ से द्वारका भेज दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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