श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण की मधुर-मुरली
मूकसंगीत वाणी के संगीत की अपेक्षा अधिक रहा है। मूकसंगीत वाणी के संगीत की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होता है। मनुष्य की वाणी की अपेक्षा प्रकृति की वाणी अधिक प्राचीन है। प्रकृति पुष्पों एवं नक्षत्रों की मूक भाषा में नित्य उपदेश देती है। श्रीकृष्ण ने संगीत के क्षरा उपदेश दिया। अहा ! संगीत के द्वारा हमें कितना उपदेश मिलता है। मधुर शब्द के सुनते ही हमारे नेत्रों में किस प्रकार अश्रुओं की धारा बहने लगती है और हमारा हृदय कमल किस प्रकार खिल उठता है। श्रीकृष्ण ने मुरली की मधुर तान के द्वारा ही अपना संदेश हम लोगों को सुनाया था। संगीत मानो मर्त्य लोक से अमर लोक को पहुँचाने वाली एक सीढ़ी है अथवा नादमय एक इन्द्र धनुष है, जिसके द्वारा आनंद और एकता स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी पर आती है। महान संगीतज्ञ वह है जो एकता के इस दिव्य प्रवाह की कलकल ध्वनि को सुनता है जो अहर्निश इस नांदरूपी इन्द्रधनुष के सहारे स्वर्ग से नीचे की ओर बहता रहता है और उसी को अपने सुन्दर शब्दों में हम लोगों को सुनाता है, किन्तु कोई भी मनुष्य, चाहे वह इस कला में कितना ही प्रवीण क्यों न हो, उस जगदुद्धारक की समता नहीं कर सकता, जो अपने दिव्य-संगीत से त्रिलाकी को पावन कर देता है। मधुर से मधुर स्वर सर्वदा उसके पास रहता है, उसकी दिव्य वाणी और दृष्टि में जीवनरूपी अमृत भरा रहता है और उसके हाथ के साधारण से साधारण वाद्य में भी अलौकिक स्फूर्ति भरी होती है, ऐसे उस भगवान बाल-कृष्ण् की जादूभरी मुरली से सारे जगत के मोहित हो जाने में कौन आश्चय्र की बात है ? जिस भाग्यवान पुरुष के कानों में कभी उस मधुर स्वर ने प्रवेश कर उसे उत्मत्त बना दिया है, वही उसकी माधुरी को जान सकता है। भगवान ने बांसुरी बजायी, उसके द्वारा आत्मा का दिव्य संगीत सुनाया, उन्होंने प्रेम का पवित्र उन्मादकारी राग अलापा। इस प्रेमाकर्षण का प्रभाव प्रकृति पर भी पड़ा। श्रीकृष्ण के संगीत में आध्यात्मिक आकर्षक था, इसी से उस वंशी ध्वनि को सुनकर औरों की तो बात ही क्या, वृक्ष और लताएं तक आनंद से पुलकित हो जाती थी। पुष्प नया ही रंग लेकर खिल उठते थे और पवन के झकोरों और पक्षियों की काकलि में भी आनंद का स्वर भर जाता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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