श्रीकृष्णांक
महाराष्ट्र में श्रीकृष्ण-भक्ति
अद्वैत परमात्मा और विट्ठल में इनके मन रत्तीभर भी भेद नहीं था, परन्तु परमात्मा नाम रुप से प्रकट होकर इन्द्रियगम्य बने, इस बात में यह आनंद मानते थे। इस तरह महाराष्ट्र में ब्रह्म-रस और भक्ति रस का ऐक्य हो गया। ‘तू आकाश मैं भूमि, तू चंद्रमा मैं समुद्र’ यह नामदेव का अभंग देखने योग्य है। ‘ तू तुलसी मैं मंजरी, तू कृष्ण मैं रुक्मिीणी, तू जहाज मैं नौका, तू वेद मैं स्तवन करने वाला, तू आत्मा मैं देह, और हे भगवान ! मेरा प्रेम इस प्रकार मेरे अन्दर भर गया है, फिर भी दोनों तुम ही हो, यह अद्वैतानंद भी श्रीगुरु की कृपा से मेर हृदय में जमा हुआ है। हे पंढरीनाथ ! देह रहे या न रहे, तेरे चरणों में दृढभाव रहना चाहिये। नामदेव के इसी भावना के अनुसार इस सारी भक्त मंडली का श्रीकृष्ण चरणों में दृढ़ विश्वास था। तुझिया सत्तेक नें वेदासी बोलणें। सूर्यासी चालणें तुझिया सत्ते । अर्थात ‘तेरी सत्ता में वेद बोलते हैं, सूर्य घूमता है, बादल बरसते हैं, पर्वत स्थिर हैं और वायु संचार करता है। इस चरण में श्रुति का अनुवाद है। यवढा वेल का लाविला। कोण्यान भक्ता नें गोविला ? भगवन्, जल्दी जाइये, पुकारते पुकारते गला सूख गया, शरीर पुलकित हो गया और अश्रुधाराओं से पृथ्वी भींग गयी। हे दीनदयालु ! आने में इतनी देर क्यों कर रहे हो ? किसी भक्त के यहाँ तो नहीं फंस गये ? ये भक्त ऐसे प्रेम-विह्वल शब्दों से भगवान को पुकारते थे। नामदेव पूछते हैं- ऐसा कौन है जो श्रीकृष्ण भक्ति के बिना भवसागर से तर गया हो ? पतितपावन नाम ऐकुनी आलों मी द्वारां । ‘तेरा पतितपावन नाम सुनकर मैं तेरे द्वार पर दौड़ा आया, किन्तु तुझमें यह गुण न पाकर मैं वापस लौट रहा हूं’। नामदेव के इस तरह के प्रेम कलह के बड़े ही अच्छे अभंग हैं। भवान के रुप, उनके नाम, उनके दास तथा उनकी सगुण लीलाओं के अमृतमय महोदधि में सभी भक्त गोते लगा रहे हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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