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छिपिया को दूध –भात खीचरीहू करमा की,
चक्कयरा रैदासजू चमारहू के खाये हैं ।
बिदुर की भाजी-रोटी बथुआ समां की रुची,
बिदुरैन केर छोल, छिकुला खवाये हैं ।।
करिकैं करार, आय बौध अवतार लेय,
आपुनी पुरी में, एक पातरी जिमाये हैं ।
नीच परसंगी, जाति-पांति के न अंगी,
ऐसे ‘ठाकुर’ दुरंगी तौ, सदा होत ही आये हैं ।
मेवा बई घनी काबुल में, वृंदावन आनि करील जमाये ।
राधिका सी सुभ बाम बिहायकैं, कूबरी संग सनेह बढ़ाये ।
मेवा तजी दुरजोधन की, बिदुराइनि के घर छोकल खाये ।
‘ठाकुर’ ! ठाकुर की का कहौं ? ठाकुर तौ बाबरे होतई आये ।
अनपढ़ बातें तेरी कहाँ लौं बखानौं दई ?
मानुस कों प्रीति दीन्हीं प्रीति में विछोह तो ।
कूरन कौं धन दीन्होंन, सुघरन सोच दीन्हों ,
ऐसो पै न दीन्हौं जैसो जहाँ जौन सोहतो ।
‘ठाकुर’ कहत, जो पै बिधि में विवेक हो तो,
सुर-नर मुनि पसु-पंछी कैसे मोहतो ।
रुपवन्तु प्रानी जौ सरकवन्तौ हो तौ कहूं,
सोने में सुगन्धम के सराहिबै कौं को हतो ।
बढ़ते आइये, वंशी का विषय छूटा जा रहा है। अपने सलोने श्याम से पद्माकर किसी गोपी के द्वारा छेड़-छाड़ कराते हैं-
मैं तरुनी, तुम तरुनतन, चुगुल- चवाई गाम,
मुरली लै न बजाइये, श्या म ! हमारो नाम ।
‘शेख’ भी चुटकी लेते हैं-
हम वज्र बसिहैं, तौ बांसुरी न बसै यह,
बांसुरी बसाय, कान्हौ हमें विदा दीजिये ।
‘रसखान’ ने भी कमाल ही किया है-
करिये उपाय, बांस डारिये कटाय,
नाहिं उपजैगों बांस नाहिं बाजे फेरि बांसुरी ।
या मुरली मुरली धर की, अधरानधरी, अधरा न धरौंगी ।
कोऊ न कान्हरर के करतैं, वह बैरिनि बांसुरिया गहि जारै ।
वह बांसुरी की धुनि कान परै, कुलकानि हियो तजि भाजतु है।
या वज्र मण्डील में ‘ रसखान’, सु कौन भटू, जु लटू नहिं कीनी ।
सचमुच भक्त कवियों की ऐसी मधुर कृतियां मर्म स्थल पर अपन अमिट प्रभावडाले बिना नहींरहतीं। जिसके हृदय हैं और हृदय में दर्द है, समझ में तनिक भी मनन करने की शक्ति है, वह अनायास ही आकृष्ट होकर, चुपचाप मौनाघात सहता है। यह चोट भी बड़ी बेढब समझिये, जिसके ‘सीना’ हो, वहीं इसका मजा जाने। विस्तार भय के कारण सहज सलोने होते हुए भी कवियों के इन मीठे श्रीकृष्ण को अब मैं नमस्कार करता हूँ।
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