श्रीकृष्णांक
कवियों के श्रीकृष्ण
कजरारी अंखियानि में, बस्यों रहै दिन-रात, -नागरीदास
कविवर ‘देव’ भी जोर देते हैं- सांवरे लाल को सांवरोंरुप, मैं नैननिको कजरा करि राख्योद । श्याम का सांवलापन तो अाप देख ही चुके, अब लाल की लाली और हरि की हरियाली पर भी गौर कीजिये- लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल, -कबीर
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोय । -बिहारी
जामें रस सोई हरयो, ये जानत सब कोय । -नागरीदास
समझे इन रंगीले भावों का मर्म ? इसे जयपुरी दुपट्टों का सा कोरा रंग न जानिये। इसमें तो बड़ी विलक्षणता है- या अनुरागी चित्ता की, गति समुझे नहिं कोय, -बिहारी
निस्संन्देह कवियों के मीठे मधुसूदन का चसका, अब आपको लग गया होगा। संसार ने उनकी आराधना भिन्न भिन्न उद्देश्यों को रखकर ही की है। किसी ने स्वर्ग प्राप्ति के लिए, किसी ने मुक्त का मार्ग साफ करने के लिए किसी ने लौकिकतो किसी ने पारलौकिक सुख के लिए, किसी ने रोग विशेष से निवृति पाने के लिए और किसी ने किसी वस्तु विशेष की उत्कट इच्छा से प्रेरित हो उन्हें पूजा है। मतलब यह है कि किसी- न- किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर ही लोगों ने भगवान को अपनाया है। परन्तु इन भावुक कवियों ने ? क्या पूंछते हो इनकी, इन्होंने तो निष्कपट हृदय से, विशुद्ध आत्मा से, सच्ची लगन से अपने प्यारे श्रीकृष्ण को अपार प्रेमकी गाढ़ी चाशनी में पागकर निर्मल भक्ति के अथाह रस से सराबोर कर डाला है। वहाँ न स्वार्थ है, न कुछ मांगने की इच्छा है और न कोई कामना या लालसा ही है- इसी से तो इन्होंने अपने-अपने भावानुसार भगवान को प्रत्यक्ष करने का सौभाग्य प्राप्त किया था। इनकी अनन्यता देखियें- या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुक को तजि डारौं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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