श्रीकृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
यही दान यदि किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य कर न हो, किन्तु विश्वात्मा के लिये आत्मसमर्पण हो तो उसे उत्सर्ग कहते हैं, जैसा कि वृक्ष, लता आदि अपने पुष्पों का गन्ध वायु में देकर जगत के उपकार में लगा देते हैं, वृक्ष अपने बीज द्वारा एक नया वृक्ष उत्पन्न कर जगत को दे देता है, प्राणी अपने शरीर के भाग से सन्तान उत्पन्न कर जगत को अर्पण कर देते हैं इत्यादि। अब जो अन्न लिया गया है वह अर्क, प्राण आदि अवस्थाओं में प्राप्त होकर उस-उस वस्तु की क्षीण होती हुई केन्द्रशक्ति (प्रजापति)- को जो आप्यायित करता रहता है- वह भेषज्यक्रिया है। और उस अन्न के द्वारा किसी नियत परिमाण तक जो उस वस्तु की वृद्धि होती है- वह विकास समझा जाता है, जैसा कि वृक्षों का व प्राणि शरीरों का अपनी-अपनी मात्रा तक बढ़ना, विद्या पढ़ने से बुद्धि का विकास होना आदि-आदि। यह यज्ञ बराबर सर्वत्र होता रहता है, इसी प्राकृत यज्ञ के आधार पर हमारे धार्मिक यज्ञ भी अवलम्बित हैं। अस्तु, यद्यपि जड़ वस्तु- मिट्टी, पत्थर आदि में ये क्रियाएँ स्फुट रूप से नहीं देखी जातीं, किन्तु अनुमान से माननी अवश्य पड़ती है, तब ही तो ये जड़ वस्तुएँ भी क्रम-क्रम से पुरानी होती हैं, व कालक्रम से निर्जीव हो जाती हैं। अर्पण की अपेक्षा आदान का अधिक होना जैसे वृद्धि का कारण है, वैसे ही आदान की अपेक्षा अर्पण अधिक होना ह्रास व क्षीणता का हेतु है। आदान-प्रदान न होता तो वह वस्तु सदा के लिये एकरूप रहे। किन्तु ऐसी कोई वस्तु संसार में नहीं। अतः जड़ वस्तुओं में भी आदान-प्रदान अवश्य है। सब ही वस्तुएँ सूर्य से प्रकाश लेती हैं, मेघों से जल लेती हैं, पृथ्वी से जीवन लेती हैं और अपना-अपना भाग यथोचित सूर्य, वायु, पृथ्वी आदि को देती भी हैं। लोहे पर जंग लग जाना, पानी पर झाग आना, पत्थर पर पपड़ी उतरना, मिट्टी का सड़ना आदि तो आदान-प्रदान के स्फुट उदाहरण हैं। अस्तु, यह यज्ञ जिन पर होता है, अर्थात यज्ञ द्वारा भिन्न-भिन्न पदार्थों के उपादान जो बनते रहते हैं, वे क्षरपुरुष हैं। वे स्वयं क्षीण होकर पुरों को बनाते हैं, उनका रूप-परिवर्तन होता है, इसलिये उन्हें क्षर कहा जाता है। और जो उस यज्ञ-क्रिया के प्रवर्तक हैं जिनकी प्रेरणा से यज्ञ-क्रिया होती है, जो क्षर पुरुषों का परिणाम कराते हैं, वे अक्षर-पुरुष हैं। ये परिणाम में निमित्तकारण-मात्र हैं, स्वयं विकृत नहीं होते- इसलिये इन्हें अक्षर पुरुष कहते हैं। ये परिणामी पदार्थ, परिणामरूप यज्ञ क्रिया और परिणाम के निमित्त- सब जिसके आश्रित हैं- वह सर्वाधार, कार्य-कारणशून्य निर्विकार अव्यय पुरुष कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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