श्रीकृष्णांक
अवतार का हेतु
मैंने अपने पूर्वज महात्माओं से सुना है कि वह संसार की समस्त वस्तुओं में है और सबसे सर्वदा दूर और पृथक भी है इस जगत में केवल एक आत्मा के द्वारा ही उसकी प्राप्ति हो सकती है परन्तु बलहीन कभी उसे प्राप्त नहीं कर सकता। जो पुरुषार्थ करता है वह उसे पाता है और अपने ही अन्तरात्मा में आनन्द रूप से उसे पाता है। उपर्युक्त वर्णन अनुसार शास्त्रों में बतलाया गया है कि उस प्रभु का न रूप है न नाम है न जन्म है और न उसके कोई माता-पिता है वह जगत से अतीत है अब यहाँ प्रश्न होता है कि ऐसे प्रभु को जगत में जन्म किसलिये लेना पडा ? ऐसा कौन-सा बडा़ कारण था जिस से भगवान को अवतार धारण करना पड़ा। हिन्दू-धर्म में दो प्रधान मत हैं उनमें एक पुरुषार्थ के द्वारा प्रभु की ओेर अग्रसर होने के लिये मनुष्यों को उपदेश करता है और दूसरे के मत से प्रभु स्वयं दया करके मनुष्यों को दर्शन देने आता है। इस दूसरे मत के मानने वाले है ईश्वर की खोज करते-करते जब मनुष्य हार गये उसके समीप नहीं पहुँच सके उसका पार नहीं पा सके वह कहाँ है ? कैसा है ? यह नहीं समझ सके तब प्रभु ने स्वयं दया की। मनुष्य उसे जान सकें पहचान सकें प्राप्त कर सकें संग का परमानन्द ले सके इसके लिये वह स्वयं मनुष्य-जैसा बनकर मनुष्यों के समीप जगत में आया। जगत की आँखें जिसे देखने के लिये युगों से तरस रही थीं अनादिकाल से जिसकी खोज की जा रही थी। जीव जिसके लिये तड़प रहे थे, जिसके लिये जप, तप, व्रत, दान, ध्यान, यज्ञ, तीर्थ और उपासना आदि साधन किये जा रहे थे एवं कहकर वेद ने जिसकी स्तुति की थी, वह ‘रस’ स्वयं मूर्तिमान बनकर, जो भक्त उसे देखने के लिये व्याकुल हो रहे थे, उन्हें देखने को उनके सामने आ गया। यही उसका अवतार है। भक्तों के प्रेम के लिये उसने जो यह कृपा की यही उसे प्राप्त करने का एक मार्ग है; परमेश्वर किसलिये अवतार लेता है, इस प्रश्र का यही उत्तर है। वह मनुष्य रूप में आता है- भक्तों पर कृपा करने के लिये, वात्सल्यरस बरसाने के लिये; भक्त उसे जान सकें, अनुभव कर सकें और निरख सकें, साक्षात्कार कर सकें और मिल सकें, इसलिये ! छिपे हुए पिता को खोजने के लिये छोटे बच्चे भरसक चेष्टा करते हैं, पर जब नहीं खोज पाते, नहीं देख पाते तब विह्ल हो जाते हैं, व्याकुल हो जाते हैं, लाचार हो पड़ते हैं और दीन बन जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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