श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण तत्त्व
2. विष्णु पुराण पंचमाश के प्रथमाध्याय में वर्णन हैं कि असुरों के भार से पीडिता पृथ्वी देवी की कातर प्रार्थना सुनकर जब ब्रह्माजी ने देवताओं के साथ क्षीरसागर के तटपर जाकर श्रीहरि का स्तवन किया, तब भगवान ने अपने शुक्ल और कृष्णवर्ण के दो केश उखाड़ कर दे दिये और कहा कि- ....................एतौ मत्केशौ वसुधातले । ब्रह्माजी ने भी देवताओं से कहा था, श्रीहरि अपने स्वल्प अंश से पृथ्वीक पर अवतीर्ण होकर धर्म रक्षा किया करते हैं। महाभारत आदिपर्व के 64वें अध्याय में कथा है कि ‘इन्द्र ने जब पुरुषोत्तम नारायण से अंश रूप में अवतीर्ण होने को कहा तब उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया- तं भुव: शोधनायेन्द्र उवाच पुरुषोत्तमम् । इसके अतिरिक्त महाभारत के अनेक स्थलों में अर्जुन को ‘नर’ और भगवान श्रीकृष्ण को ‘नारायण’ ऋषि कहा गया है, भीष्मपर्व 23वें अध्याय में हैं कि (नरनारायणावृषी) नर और नारायण ऋषि दोनों धर्म के पुत्र थे, इन दोनों भाईयों के दूसरे नाम थे- ‘कृष्ण’ और ‘हरि’। नारायणो हि विश्वात्माचतुर्मूर्ति: सनातन: । नर-नारायण की अराधना-तपस्या देखकर नारदजी के मन में शंका उठी कि ये किसकी आराधना करतें हैं तथा इनके लिये तपस्या कैसी ? नारदजी ने अपने सन्देह-निवारण के लिये उनसे पूछा, तब उन्होंने कहा कि ‘हम लोगों के एक मूल पुरुष और हैं, हम उन्हीं का ध्यान करते हैं, जो समस्त भूतों के अन्तरात्मा, अव्यक्त, अचल और सनातन हैं तथा जो इन्द्रियादि शून्य और अत्यन्त दुर्विज्ञेय हैं। उपर्युक्त वर्णनों पर विचार करने से मालूम होता है कि श्रीकृष्ण ईश्वर के अंश थे। एते चांशकला:: पुंस: कृष्णस्तु भगवान स्वयम् । वैकुण्ठनाथ भगवान परमेश्वर ने महामाया योगनिद्रा से कहा कि ‘मेरे आदेश से तुम जाकर पाताल के छः पुरुषों को क्रमशः देवकी के गर्भ में स्थापित करो, कंस के द्वारा उनके मारे जाने पर मेरा अंशांश देवकी का सप्तम गर्भ होगा, उसे तुम रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर देना, तदनन्तर (अष्टम गर्भ से) मैं स्वयं जन्म ग्रहण करूँगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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