श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-गीतावली
फिर भी जो कुछ हैं वह संयत हैं, नियमित हैं और है प्रेमरस-परिपूरित- मधुकर कहहु कहन जो पारो । चित्त की विचित्र अवस्था है, वह जिसकों प्यार करता है, जिसकी नाम की माला जपता है, खीझ जाने पर उसको भी उल्टी-सीधी सुना देता है। कभी वेदनाओं से विकल होकर ऐसा किया जाता है, और कभी जी हलका करने के लिये। कभी इस भाव का वेग संयत होता है, कभी तीव्र। धीर प्रकृति गम्भीर होती है, अधीर प्रकृति उद्धत। संसार में ऐसे लोग भी हुए हैं जिन्होंने गला उतर जाने पर भी उफ नहीं की! ऐसे लोग प्रियतम के विरुद्ध जीभ हिलाना भी पाप समझते हैं, हमारे यहाँ स्वकीया नायिका का यही आदर्श हैं; परन्तु ऐसे लोग कितने हैं ? प्रायः प्राणी रो-कलप कर, टेढ़ी-मेढ़ी बातें कहकर ही अपनी पीड़ाओं और मानसिक दुःखों को कम करता हैं। गोपियों के मुख से भी ऐसी बातें सुनी जाती हैं, किन्तु गोस्वामी जी की लेखनी का सहारा पाकर वे कितनी संयत हो गयी हैं, इस बात को निम्नलिखित पद्य में देखिये- ताकि सिख ब्रज न सुनैगो कोऊ भोरे । इस पद्य के ‘गगन कूप खनि खोरे’ ‘ज्यों गूलर फल फोरे’ आदि व्यंग्यो की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। एक पद्य और देखिये। इस पद्य के पद-पद से गहरी निराशा और विवशता टपकी पड़ती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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