श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और द्रौपदी
पाण्डवों की स्त्री और तुम्हारी सखी का इतना अपमान हो, कर्ण और शकुनि मनमानी दिल्लगी उड़ावे और तुम उसका कुछ भी प्रतिकार न करो, इससे अधिक मेरे लिये क्या दुःख होगा ? चतुर्भि: कारणै: कृस्ण! त्वया रक्ष्यास्मि नित्यश: । (महा. वन.)
हे श्रीकृष्ण ! मैं तो चार हेतुओं से तम्हारे द्वारा रक्षा करने योग्य हूँ, प्रथम तो तुम्हारा- हमारा सम्बन्ध है, दूसरे इसमें तुम्हारा गौरव है, तीसरे तुम मेरे सखा हो और चौथे तुम सबके स्वामी हो।’ दु:खिनी द्रौपदी के तप से अश्रु विन्दुओं ने भगवान श्री कृष्ण के हृदय को हिला दिया। सखी का दुःख श्री कृष्ण के लिये असह्य हो गया। यहाँ पर श्री कृष्ण के मुँह से निकले, उन्हीं से कौरवों का विनाश निश्चित हो गया। भगवान ने कहा- रोदिष्यंति स्त्रियो ह्येवं येषां क्रुद्धासि भाविनि । (महा. वन. 12)
हे कृष्ण ! हे कल्याणि ! तू चिन्ता न कर। जिन राजाओं पर तू कुपित हुई है, उनकी रानियाँ भी, अर्जुन के बाणों से छिदकर और मर कर जमीन पर पड़े हुए अपने पतियों को देखकर ऐसे ही रोयेंगी ! पाण्डवों को जो काम करना चाहिये, वह मै करूँगा। मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि तू पाण्डवों की राजरानी होगी। चाहे आकाश टूट कर जमीन पर गिर पड़े, भूमि के टुकडे़-टुकड़े हो जाये, हिमालय फट जाये, परन्तु मेरे वचन कभी मिथ्या नहीं हो सकते।’ अर्जुन ने भी भगवान के इन वाक्यों का समर्थन किया, द्रौपदी के सख्य-प्रेम ने कौरवों कुल ध्वंस के लिये भगवान के श्रीमुख से भीष्म प्रतिज्ञा करवा ली ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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