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श्रीकृष्णांक
प्रेम और सेवा के अवतार श्रीकृष्ण
केवल कुबुद्धि और निर्लज्ज पुरुष ही किसी वस्तु को अपनी बतलाते है[1]। इसी प्रकार ब्रह्याजी ने भी प्रेम मूर्ति व्रजवासियों से कहा था कि तुम्हारे पास जो कुछ भी है- घर, सम्पति, शरीर, स्त्री-बच्चे- यहाँ तक कि तुम्हारा जीवन भी (भगवान) क्रिडार्थ ही है। श्रीकृष्ण ने सारी वस्तुओं का अपनी इच्छानुसार उपयोग तथा वितरण करके मनुष्य और पशु ही नहीं सारी प्रकृति को परस्पर प्रेमपूर्ण एकता तथा सेवा के सूत्र में बाँध दिया था। सबको एक कर दिया था। उनके धन को बाँटकर भगवान ने उनकी वास्तविक सेवा की थी[2]। सारे आवरणों से मुक्त होकर उनका सच्चा प्रेम और भी निर्बाध रूप से खिल उठा और उसने सबको कृतार्थ कर दिया। उनका प्रेम ऐसा था कि वह प्रेमास्पद की रक्षा के लिये सदा विपत्तियों को झेलने के लिये अग्रसर रहता था। इसीलिये गोपियों प्रेम में विह्ल होकर ये शब्द कहे थे- विष-दूषित जल से, अनेकानेक दानवों से, कालकी- से प्रलय वर्षा और तूफान से, दावाग्नि से तथा अगणित आपत्तियों से आपने हमारी रक्षा की है[3]। बडे़-बूढों ने भी इस बात को स्वीकार किया और यह सोचकर उन्हें संकोच हुआ कि ऐसे महान पुरुष हमारे जैसे दीन मनुष्यों के घर जन्म लिया है[4]। इसी बात को भगवान पिता श्री वसुदेव जी ने उद्धव के सामने चलकर स्वीकार किया था [5]। जब कभी उन पर कोई विपत्ति आती थी तो उन लोगों को दौड़कर भगवान के पास सहायता माँगने का अभ्यास हो गया था[6]। क्योंकि भगवान को अपने प्रेमास्पद की सहायता एवं सेवा करने में ही परमानन्द मिलता था। यहाँ तक कि कभी-कभी भगवान सम्मुख नहीं आते और कष्ट देते हुए से प्रतीत होते थे- जैसे कालियदमन के समय थोड़ी देर के लिये वे अचेत से हो गये थे, अथवा चीर-हरण के समय जब उन्होंने गोपियों को रूलाया था- तब भी वे उनको बढ़ाने के लिये ही ऐसा किया करते थे, और ऐसा करने में उन्हें स्वयं भी (लीला) कम कष्ट नहीं होता था, इसीलिये वे पीछे से क्षमा माँगकर उन्हें समझाया करते थे[7]। यहाँ यह प्रश्न होता है कि सांसरिक मनुष्यों की भाँति भगवत्स प्रेमी व्रजवासी भी भगवान के पास जाकर उनसे रक्षा की प्रार्थना क्यों किया करते थे ? क्या उनका प्रेम अहैतुक एवं फलापेक्षारित नहीं था ? क्या उनका हृदय स्वार्थपूर्ण था, जिसके द्वारा वे अपने प्रेमास्पद से लाभ उठाते थै और इस प्रकार एक तरह का लेन-देन का व्यवसाय करते थे ? केवल बड़ी विपत्तियों के निवारणार्थ ही नहीं, वे तो साधारण-सी आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिये भी उनसे प्रार्थना किया करते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत्कृतं ते स्वामन्यं तु तत्र कुधियोअपर ईश कुर्यु:।
कर्तु: प्रभोस्तव किमस्यत आवहंति त्यक्तह्रियस्त्वदरोपितकर्तृवादा:॥(श्रीमद्भा.8।22।20)ब्रह्मन् यमनुगृह्णामि तद्विशो विधुनोम्यहम्। यन्मद: पुरुष: स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते॥
(श्रीमद्भा.8।22।24)भगवान कहते हैं कि मै जिस पर कृपा करता हूँ उसका धन-वैभव पहले हर लेता हूं, क्योंकि मनुष्य धन और ऐश्वर्य के नशें में चूर होकर दूसरे प्राणियों का और निरादर करता है।भक्त वृत्रासुर इंद्र से कहता है-
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त्रैवर्गिकायासविघातमस्मत् पतिर्विधत्ते पुरुषस्य शक्र!।
ततोअनुमेयो भगवत्प्रसादो यो दुर्लभोअकिंचनगोचरोअन्यै:॥(श्रीमद्भा.6।11।23)मेरे प्रभु अपने भक्तों को धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग के लिये चेष्टा नही करने देते, ऐसे ही अकिंचन भक्त भगवान की प्रसन्नता के पात्र है। - ↑
विषजलाप्ययाद्यद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभयादृषभ ते वयं रक्षिता मुहु:॥(श्रीमद्भा.10।31।3) - ↑
बालकस्य यदेतानि कर्माण्यत्यद्भोतानि वै। कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम्॥
(श्रीमद्भा.10।26।2) - ↑
स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापांगनिरीक्षितम्। हसितं भाषितं चांग सर्वा न: शिथिला: क्रिया:॥
सरिच्छैलवनोद्देशान्मुकुन्दपदभूषितान्। आक्रीडानीक्षमाणानां मनो याति तदात्मताम्॥(श्रीमद्भा.10।46।21-22) - ↑ जिस समय इन्द्र ने मूसलाधार वर्षा की, उस समय शीत से पीडित गोप-गोपियों ने अपने अपने बालकों छातियों में छिपाये दौड़कर भगवान शरण ली और वे कहने लगे-
कृष्ण कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं प्रभो! त्रातुमर्हसि देवन्न: कुपिताद्भक्तवत्सल!
(श्रीमद्भा.10।25।13)हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे महाभाग ! हे प्रभो ! इस गोकुल के नाथ तुम ही हो, हे भक्तवत्सल ! इस कुपित इन्द्र से हमारी रक्षा करो ! एक बार रेड के वन में आधी रात को आग लगी और उससे सारा व्रज घिर गया, तब सबके भगवान के शरण होकर पुकारा-कृष्ण कृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम। एष घोरतमो वह्निस्तावकांग्रसते हि न:॥
सुदुस्तरान्न: स्वान् पाहि कालाग्ने सुहृद: प्रभो।(श्रीमद्भा.10।17।23-24)इसी प्रकार भयानक दावानल के प्रकट होने पर (10। 19। 9-10) और नन्द बाबा को सर्प के पकड़ने पर भी श्रीकृष्ण ! को ही पुकारा गया था (10।28।3) एवं सभी जगह उन्होंने अपने शरणागतों की रक्षा की थी। - ↑
नाहं तु सख्यो भजतोअपि जंतून् भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये।यथाधनो लब्धधने विनष्टे तच्चिंतयाअन्यन्निभृतो न वेद॥एवं मदर्थोज्झितलोकवेदस्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेअबला:।मया परोक्षं भजता तिरोहितं मासूयितं मार्हथ तत् प्रियं प्रिया:॥
(श्रीमद्भा.10।32।20-21)