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श्रीकृष्णांक
प्रेम और सेवा के अवतार श्रीकृष्ण
इसीलिये तुमने साधारण मनुष्यों का-सा शरीर धारण कर एक ग्वाल-बालक की भाँति वन-वन भटक कर गौएँ चरायीं और एक बाँस की बाँसुरी पर आत्मा को आह्नादित करने वाली मतवाली तान छेड़कर भूले हुए लोगों को प्रेम का वह पथ प्रदर्शित किया जो सबको एक प्रेममय आनन्द के सूत्र में बाँध देता है। यों करके तुमने सारे संसार को सौन्दर्य, सुख एवं समृद्धि से आप्लावित कर दिया। 259 जब वे भूले हुए पथिक तुम्हारे पास लौटकर आये तो तुमने प्रेम के साथ उन्हें यह स्मरण कराया कि तुम लोगों के लिये सुख प्राप्ति का एकमात्र उपाय प्रेमपूर्वक दूसरों की निःस्वार्थ सेवा के भाव में रँग जाना ही है। वे तुम्हारे वास्तविक आशय को भूलकर कर्मकाण्ड के पुष्पित प्रपज्ज में पड़ गये थे। इसीलिये तुमने फिर से मनुष्य रूप में अवतीर्ण होकर अपने आचरणों द्वारा उन सबको एकता के सूत्र में बाँधने वाले विशुद्ध-प्रेम और निष्काम-सेवा का पवित्र मार्ग बतलाया और कहा- ‘मित्रो ! इन भाग्यशाली वृक्षों को देखो, इनका जीवन केवल दूसरों की सेवा के लिये ही है। ये स्वयं वायु, वर्षा, धूप और जाड़ा सहकर उनसे सदा हमें बचाया करते हैं। अहो ! इनका जन्म धन्य है जो इनके यहाँ से कोई भी दुःखी प्राणी विमुख नहीं लौटता। भाइयों ! उन्हीं का जीवन सफल है जो इन वृक्षों की भाँति अपने जीवन, सम्पत्ति, बुद्धि और वाणी द्वारा सदा दूसरों की सेवा में लगे रहते हैं।[2] हे प्यारे ! इसीलिये ज्ञानी महात्माओं ने कहा है कि स्वभाव सिद्ध स्वार्थपरता और कलह के जाल में फँसे हुए अविद्या-ग्रस्त संसार का कल्याण तुम्हारी उन मानव-लीलाओं के श्रवण करने में ही है जो तुमने प्रेमावतार के रूप में की थी[3] तुम प्रेम के कारण ही मनुष्यलोक में आकर संसार में युवक-आन्दोलन के एकमात्र नेता बने थे और प्रेम तथा एकता का प्रचार किये थे। क्या ही अच्छा होता यदि आज भी संसार के समस्त नवयुवक तुम्हारे आदर्श मार्ग का अनुसरण करते। जिस शोभन-काल में यह प्रेमावतार मत्र्यलोक में प्रकट हुआ उस समय समस्त प्रकृति ने उसका स्वागत किया। आकाश मुधयुक्त हो गया, नक्षत्र खूब चमकने लगे, नदियाँ और जलाशयों का जल निर्मल हो गया, कमल खिल गये, वनराजियाँ पक्षियों के कमनीय कलरव से गूँज उठीं, सुगन्ध समीर मन्द-मन्द बहने लगा, किन्तु हाय ! उस समय मथुरा निवासी और समस्त संसार के लोग गाढ़ निद्रा में मग्न थे, क्योंकि वे सर्व भूतों की प्रेमयुक्त सेवा के मार्ग से विचलित हो चुके थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्राजापति:। अनेन प्रसविष्य्ध्वमेषवोअस्त्विष्टकामधुक् ।।(श्रीमद्भगवद्गीता 3।10)
प्रभु ने यज्ञ के साथ साथ मनुष्यों को उत्पन्न किया और उनको उपदेश दिया कि इससे तुम्हें सफलता मिलेगी और तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। - ↑ पश्यतैतान्महाभागान् परार्थैकांतजीवितान्। वातवर्षातपहिमान् सहंतो वारयंति न: ।।
एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु। प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा ।।श्रीमद्भा.10।22।32,35 - ↑ यस्मिन् सत्कर्णपीयूषे यशस्तीर्थवरे सकृत्। श्रोतांजलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासानाम्॥(श्रीमद्भा.9।24।62)पुन:-
आच्छिद्य कीर्ति सुश्लोकां वितत्य ह्यंजसा नु कौ। तमोअनया तरिष्यंतीत्यगात्स्वं पदमीश्वर: ।।(श्रीमद्भा.11।1।7)
श्री हरि के यशरूपी श्रेष्ठ तीर्थ सुधा का एक बार भी श्रोत्ररूप अंजलि के द्वारा पी लेने वाला मनुष्य कर्म वासनाओं के त्याग करने में समर्थ हो जाता है। इसीलिये कविगण सुन्दर छन्दों में इस पवित्र कीर्ति का गान करते हैं।