श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण चरित्र का सार
किन्हीं-किन्हीं की धारणा है कि अर्जुन को युद्ध-जैसे कर्म में- विशेषतः पारिवारिक कलहपूर्ण युद्ध-सरीखे तापसी कर्म में प्रवृत्त करने के लिये भगवान के द्वारा उसे इतने गूढ़ और सारगर्भित तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया जाना तो ऐसा ही अप्रयोजक हुआ जैसे कोई कोदौं की रोटी सेकने के लिये चन्दन की लकडी जलाये। इसी प्रकार ऊपर से जो कर्म दिखलायी पड़ता है वह मूल में अकर्म है और ऊपर से जो अकर्म दिखलायी पड़ता है वह मूल में कर्म है, इस उलझन से निकलना भी बहुतों के लिये बड़ा कठिन होता है। इन समस्त कूट समस्याओं को भलीभाँति समाधान पूर्वक समझने के लिये महाभारत में वर्णित श्रीकृष्ण-चरित्र का मार्मिक और सूक्ष्म परिशीलन ही सर्वोत्तूमउपाय है।सारांश यह कि श्रीकृष्ण-चरित्र कर्मयोग के समस्त अंगोंपांगो का स्पष्टीकरण करने वाले उदाहरणों का एक अपूर्व संग्रह है। जब श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर हस्तिनापुर पहूंचे और वहाँ जब दुर्योधन ने उन्हें भोजन के लिये निमन्त्रण दिया, तब उसे अस्वीकार करते हुए आपने कहा- संप्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद्भोज्यान वा पुन: । अर्थात ‘भोजन या तो प्रेम से होता है या विपत्ति पड़ने पर चाहे जहाँ मिले जैसे खाकर पेट भरना पड़ता है। यहाँ विपत्ति तो हम पर पड़ी नहीं है और प्रेम है नहीं !’ श्रीकृष्ण का प्रेम कौरवों के साथ क्यों नहीं है और पाण्डवों के साथ क्यों है, इस बात का भी खुलासा श्रीकृष्ण ने उसी समय कर दिया, उन्होंने कहा- यस्तान्द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्ताननु स मामनु । पाण्डवों के साथ मेरी ऐसी एकरूपता हो गयी है कि जो उर के शत्रु हैं वे मेरे शत्रु हैं और जो उनके मित्र हैं वे मेरे मित्र हैं; और इस एकरूपता या तादात्म्य का कारण यह है कि पाण्डव लोग धर्मचारी हैं। यानी श्रीकृष्ण धर्म के पक्षपाती हैं, किसी व्यक्ति विशेष के नहीं हैं। पाण्डव धर्मचारी हैं, इसीलिये उन्होंने उनका पक्ष ग्रहण किया। उचित और अनुचित दोनों ही प्रकार के पक्षपात के उदाहरण महाभारत में मिलते हैं। गीता के पहले अध्याय में यह तुलना स्पष्ट दिखलायी पड़ती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |