श्रीकृष्णांक
रासलीला
दिन बीतने पर जब तुम आते हो, तब तुम्हारे कुटिल कुन्तलावृत श्री मुखमण्डल को अनिमेष नयन से देखने की इच्छा होती है। पलक पड़ने होने वाली
बाधा से व्यथित होकर हम विधाता की निन्दाी किया करती है कि उन्होंने यह पलकें क्यों बनायीं ? हे गोविन्द, तुम्हारा वह मुरली का गान-जो हमारे पति, पुत्र, जाति, भ्राता- सबको भूला देता है। हे शठ ! रात्रि के समय शरण मे आयी हुई दासियों को तुम्हारे अतिरिक्त और कौन परित्याग करता है ? हे माधव ! इस निर्जन स्थान में बुलाकर हम लोगों का उपहास करते हो और उससे हमारी मिलनेच्छा बढ़ रही है ! तुम्हारा वह हास्यमुख, वह प्रेम-निरीक्षण, तुम्हारा वह लक्ष्मी का आवास-विलास स्वरूप विशाल हृदय देखने के लिये हमारे हृदय में सदा ही उत्कण्ठा बनी रहती है। सखे ! तुम्हारा जन्म व्रजवासियों के दुःखनाश के लिये हुआ है। हे प्रिय ! कृपणता को छोड़ो, हमें कुछ दान करो, अरे ! तुम्हारे दर्शन बिना यह प्राण जा रहे हैं ! हे मुरारे ! हम तुम्हारे स्वजन हैं, हमारे इस हृद्रोग के एकमात्र ओषध तुम्हीं हो। हे प्रिय, तुम्हीं हमारे जीवन हो। तुम्हें व्यथा न हो, इसी आशंका से हम तुम्हारे सुकोमल कमल चरणों को अपने कठिन हृदय पर बड़ी सावधानी से धारण करती हैं और तुम इन्हीं चरण कमलों से वन-वन भटकते हो। आहा ! क्षुद्र पाषाण आदि से उन्हें कितनी पीड़ा होती होगी। हाय ! यह सोचकर हम व्याकुल हो रही हैं।’ गोपियों के इस कातर आहवान को श्री भगवान अब अधिक न सह सके। उन्होंने फिर दर्शन दिया। यमुना के तट पर पुनः रासलीला हुई। श्रुति समुह कर्मकाण्ड में ईश्वर का दर्शन न पाकर कर्म के अनुगमन से जब अपूर्ण काम होती हैं और तदनन्तर ज्ञानकाण्ड में उनके दर्शन कर आह्नादित हो उठती हैं, तब काम का बन्धन छूट जाता है। उसी प्रकार श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपियों का काम पूर्ण हो गया। गोपियों के प्रश्नह का उत्तर श्रीकृष्ण देने लगे- ‘जो भजने वाले को ही भजता है वह अपना प्रयोजन सिद्ध करना चाहता है। ऐसा भजना स्वार्थ-साधन के लिये होता है। इसमें धर्म या प्रेम नहीं, यहाँ तो केवल स्वार्थ ही उद्देश्य होता है। जो स्वयं नहीं भजते, परन्तु दूसरे उनको भजते हैं, वह पिता, माता के समान दो तरह के होते हैं-दयालु और प्रेममय। इस भजन के द्वारा दयालु पुरुषों को निष्कृतिधर्म एवं स्नेह मय व्यक्तियों को सुहृद् सुख प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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