श्रीकृष्णांक
रासलीला
उत्फुल्लमुखी गोपिकाओं से परिवेष्टित होकर वह तारकाओं से घिरे हुए शशांक की भाँति दासि प्राप्त करने लगे। तब क्या हुआ ? अनासक्त श्री भगवान से मान प्राप्तकर गोपिकाएँ मानिनी हो उठीं और कहने लगीं कि- ‘हमारे- जैसा सौभाग्य और किसको प्राप्त है ?’ परन्तु श्री भगवान उनके गर्व और अभिमान को देखकर वहीं अन्तर्हित हो गये। 4. कैसी अद्भुत लीला हो रही थी अबतक- कांचन मणिगत जनु निरमायल कैसा था दृश्य- चलत चित्रगति सकल कलावति कैसा सुन्दर था- नाचत श्याम संग व्रजनारी । जल दस मूंह के साथ विद्युत की क्रीड़ा के समान सान्ध्य-गगन में मेघ की क्रीड़ा के समान, कैसा मनोहर खेल हो रहा था। सहसा भ्रमर उड़ गया और प्रफुल्लित सरोजिनी का मुख मण्डल मलिन हो गया ! हाय ! भक्तों कों गर्व ? जो अपने दर्प को स्वयं ही नहीं रखते, वह अपने प्रिय भक्त के दर्पको भी नहीं रहने देते ! श्री कृष्ण अन्तर्हित हो गये। कृष्ण गत प्राणा गोपियों की अवस्था भी उसी क्षण बदल गयी। श्री कृष्ण के संग विलास कर गोपियाँ- लोचन श्यामरु वचनहि श्यामरु श्रीकृष्ण के विरह में कृष्ण कान्तागण कृष्णाभिनय करने लगीं। वस्तुतः जब प्राण श्री कृष्णमय हो जाते हैं तब ऐसा ही होता है। तब प्रत्येक अंग श्रीकृष्णमय होकर खेल करने लगते हैं। गोपियाँ कृष्ण लीला करने लगीं। वे कभी मिलकर उच्च स्वर से गाती हुई उन्मत्त की भाँति वन-वन में कृष्णानुसन्धान करने लगीं। कभी तरू-लता को पकड़ कर श्री कृष्ण की बातें पूछने लगीं। जब उन्होंने श्रीकृष्ण को प्राप्त किया था तब तो उनका प्रेम एक आधार में आबद्ध था, एक केन्द्र पर एकत्रित था। अब श्री कृष्ण-विरह में वही प्रेम प्रत्येक वस्तु में फैल गया। सभी वस्तुएँ श्रीकृष्ण से सन गयीं। सभी श्रीकृष्ण की उद्दीपना करने लगीं। यह सब होने पर भी श्री कृष्ण मिलतें नहीं ! इसीलिये वे जिसे देखती हैं उसी से पूछती हैं- ‘कृष्ण कहाँ हैं ? अहा ! कृष्ण-विरह कैसी वस्तु है ? इसमें कैसे विष और अमृत का मिलन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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