श्रीकृष्णांक
रासलीला
2. हम रासलीला की भाँति-भाँति की व्याख्या सुनते हैं। रासलीला के सम्बंध में भिन्न-भिन्न लोगों के भिन्न-भिन्न मत देखे सुने जाते हैं। हम भी यदि अपना एक मत प्रकट करें तो उससे क्या लाभ होगा? केवल मतों की संख्या में एक मत और बढ़ जायेगा इससे लाभ के बदले हाँइ की सम्भावना है। शास्त्र कहते हैं कि परोपकार करना चाहिये। परंतु आप यदि पूरा समझे बिना ही किसी बातका प्रचार करने लगें और आपके उपदेश को सुनकर कोई बुरा कार्य कर बैठे तो उसके पाप के लिये आपको दण्ड भोगना पड़ेगा। अत: प्रचार का कार्य अत्यंत ही कठिन है इसलिये हम अपने मन में जैसा समझते हैं, वैसा ही सबमें प्रचार करना विपत्ति को बुलाना है। यदि हमारे समझने में भ्रम रह गया तो दूसरे का अनिष्ट होगा ही, साथ ही हमें भी पाप लगेगा और उसकेलिये दण्ड भोगना तथा नीचे गिरना पड़ेगा। यहाँ रासलीला के सम्बंध में हमारेजो कुछ विचार हैं, उन पर हम उतना विश्वास नहीं करते। न तो वैसी साधना है,न संयम है और न वैसा चरित्रगठन ही है- ऐसी अवस्था में क्या अपने ही मत को निर्भ्रांत समझकर उसी पर अड़े रहना उचित है? कदापि नहीं। अत: रासलीला के सम्बंध में ऋषियों ने जो कुछ कहा है हम यहाँ उसी को समझने की चेष्टा करेंगे। स्कन्दपुराण एक प्रामाणिकग्रन्थ है श्रीव्यासदेव इसके प्रणेता हैं। स्कन्द पुराण के विष्णु खण्ड में श्री भागवत माहात्मय का वर्णन है। उसमें व्यासजी ने रासलीला के सम्बन्ध में जो कुछ कहा है, हम उसी की आलोचना करते हैं। श्रीसच्चिदानन्दघनस्वरूपिणे अर्थात हम श्री कृष्ण को नमस्कार करते हैं, क्योंकि यह नमस्कार सर्वदा भक्ति रस की प्राप्ति कराने वाला है। वह भक्ति रस श्री कृष्ण को प्रणाम करने से ही कैसे प्राप्त होगा ? अवश्य प्राप्त होगा। क्योंकि श्री कृष्ण अनन्त सुख की वृष्टि करते हैं, उनके स्वभाव की आलोचना करने से ही हम इस बात को समझ सकते हैं। श्रीमान कृष्ण का निज स्वरूप है- सच्चिदानन्दघन। वे नित्य हैं, ज्ञानघन हैं और आनन्दघन हैं। यही उनका स्वरूप लक्षण है। यही उनका परम भाव भी है। स्वरूप से जो सच्चिदानन्दघन हैं वही इधर तटस्थ लक्षण से, इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और नाश के हेतु है। जो श्री कृष्ण एक ही काल में निर्गुण, सगुण, आत्मा और अवतार हैं, उन श्री कृष्ण को हम भक्ति रस की प्राप्ति के लिये नमस्कार करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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