श्रीकृष्णांक
अनिर्वचनीय भगवान श्रीकृष्ण
एक तरफ ये कहतें हैं- ’मम माया दूरत्यया’ तत्काल ही फिर कहते हैं- ‘मामेव ये प्रपधन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ हम इस द्वितीय चरण का आश्रय लेकर अपनी लेखनी को पवित्र करते हुए इस अनिर्वचनीय तत्त्व को कुछ समझने की चेष्टा करेंगे।
इस श्लोक के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ही वेदादि में ब्रह्म, वेदान्तादि शास्त्रों में परमात्मा एवं भागवतादि ग्रन्थों में भगवान कहे गये है। ‘रसो वै सः’ ‘को ह्योवान्यात्’ आदि वाक्यों से जिस अनिर्वचनीय परमतत्त्व का विवेचन किया हैं, वह यही श्रीकृष्ण हैं। ‘परोक्षप्रिया ह वै देवाः’ वेदों की एवं देवताओं की स्तुति बहुधा परोक्ष हुआ करती हैं। सर्वव्याप्त प्राणीमात्र के नियन्ता, आनन्दमय, रस-स्वरूप, परब्रह्म पुरुषोत्तम का ही नामान्तर श्रीकृष्ण हो जाता है। पुरुषोत्तम की दो अवस्थाएँ शास्त्रीय गन्थों से मालूम हो सकती हैं। एक अवतार- अवस्था एवं दूसरी अनवतार- अवस्था। प्रकट और अप्रकट, द्रव और धन, निरूप्यमान और आस्वाधमान, बहिः और अन्तः, पूर्व और पर, परोक्ष और अपरोक्ष आदि सब पूर्वोक्त दो अवस्थाओं के ही नामान्तर हैं। यह अनिर्वचनीय पुरुषोत्तम या श्रीकृष्ण-स्वरूप तीन प्रकार का हैं। उन्मुग्ध, उद्रबुद्ध और अशान्त। इसी बात को यदि हम रस-मर्यादा के शब्दों में कहें तो कह सकते है कि स्थायी, संयोग और विरह। भक्तों के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं- शिशुपाल, बाल और कुमार। द्रवावस्था में या आस्वाधमान अवस्था में होता है, तब मूलस्वरूप कहा जाता है। भक्तों का हृदय ही व्यापि वैकुण्ठ है। उसमें व्याप्त सच्चिदानन्दमय अक्षर ही आधार भाग चरण है। इसे ही वासुदेव भी कहते हैं। यह उस रसस्वरूप के प्राकट्य का या अवतार का पद है या उदगम स्थान हैं। यही वह रस जब प्रकट होता है तब उसे अन्तः प्राकट्य कहते हैं। यह व्यवस्था सर्वदा विधमान रहती हैं। व्यापि वैकुण्ठ और वासुदेव इन दो पदार्थों के बिना श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हो नहीं सकता। इन वासुदेव या मुख्याक्षर भगवान को ही श्रीमद्वल्लभाचार्य एवं उनके वंशधरों ने श्रीकृष्ण का लक्षण (असाधारण धर्म) कहा है। लक्षण के बिना लक्ष्य नहीं रहता, यह स्पष्ट है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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