श्रीकृष्णांक
आदर्श पुरुष श्रीकृष्ण
महाभारत को आद्यन्त पढ़ जाने पर भी हमें इन लोगों के कथन में रत्ती भर भी तथ्य और सत्य नहीं मिलता। हमारा तो यह निश्चित और सुविचारित मत है एवं हमारे इस मत से प्रायः सभी वे विद्वान्, जिन्होंने एक बार भी आद्यन्त महाभारत पढ़ा है, सहमत होंगे कि श्री कृष्ण की यह अभिलाषा कभी नहीं थी कि महाभारत हो और उसमें अनेक मनुष्यों और पशुओं का संहार हो; किन्तु जब अनेक प्रकार से समझाने पर भी कौरवों का नेता दुर्योधन न माना और पाण्डवों के प्रति अन्याय करने को तुल गया, तब श्री कृष्ण के लिये सिवा अन्यायियों का नाश करवाने के अन्य कोई चारा ही नहीं रहा था। जो लोग श्री कृष्ण के सिर महाभारत कराने का दोष मढ़ते हैं, जान पड़ता है, उन लोगों ने केवल अज्ञान पूर्वक श्रीभगवदिता के कुछ पन्ने पढ़े हैं और उनको पढ़ वे अपने भ्रान्त पूर्ण एवं निर्मूल मत पर उपनीत हुए हैं। जब दुर्योधन ने अपने हितैषियों की हितपूर्ण सलाह न मानी और धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों दलों की सेनाएँ लड़ने को खड़ी हो गयीं, तब अर्जुन को मोह उत्पन्न हुआ और उसने क्षत्रियोचित कर्तव्य से मुख मोड़ भीरू बनना चाहा। उस समय पाण्डवों के हितैषी, धर्म और न्याय के पक्षपाती श्रीकृष्ण का ही कर्तव्य था कि वे अर्जुन को लड़ने के लिये जैसे बनता वैसे राजी करते। इसलिये श्री भगवतदीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को हर पहलु से युद्ध करने की आवश्यकता समझायी,किन्तु अर्जुन की बेवक्त की शहनाई बन्द न हुई। उनके कर्तव्य-पथ में स्वजनों की हत्या का भीषण पाप अड़चन डालने लगा। उस विभिषिका को दूर करने के लिये श्री कृष्ण ने बड़ी-बड़ी युक्तियाँ पेश कीं; किन्तु जब किसी प्रकार भी अर्जुन न माने , तब अन्त में श्री कृष्ण ने अर्जुन के उस समय के कल्पित पाप का दायित्व अपने ऊपर लिया और कहा- अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥ अर्थात् मैं तुझ को अपने पापों से छुड़ा दूगाँ- तू चिन्ता मत कर। इस अभूत पूर्व जिम्मेदारी को अपने ऊपर ले श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने के लिये तैयार किया और अर्जुन लड़े भी; किन्तु मन से नहीं। विशेष कर अपने बाबा भीष्म के साथ लड़ने में अर्जुन ने जी चुराया। यह देख श्री कृष्ण ने अर्जुन से कुछ कहा तो नहीं; किन्तु युद्ध में शस्त्र ग्रहण करने की अपनी पूर्व प्रतिज्ञा को तोड़, वे स्वयं चक्र ले रथ से कूद पड़े और भीष्म पर आक्रमण करने को दौड़े। उस समय बूढ़े बाबा भीष्म घबड़ाये नहीं थे, किन्तु प्रसन्न हो बोले थे- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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