श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण का अवतारत्व
आवांच धर्मपुत्रौ द्वौ नरनारायणाभिधौ। अर्थात नर और नारायण ऋषि में नारायण श्रीकृष्ण चरण में लीन हुए एवं दूसरे (नर) अर्जुन रूप में आविर्भूत हुए। इसी से कहा जाता है कि श्रीकृष्ण का जो मानुषी तनु है वह श्रीनारायण ऋषि का है। गीता में भगवान ने इसी मानुषी-तनु का उल्लेख किया है- अवजानंति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।[2]
इस मानुषी-तनु में विष्णु, महाविष्णु और कभी-कभी महेश्वर भी प्रकाश होता है। इस प्रकार विचार करने से श्रीकृष्ण-अवतार का रहस्य कुछ-कुछ खुल जाता है। सारांश यह है कि मानुषी-तनु के लिये सम्पूर्ण ईश-तेज धारण करना असम्भव है, इसी कारण शास्त्रकारगण श्रीकृष्ण के अवतार के प्रसंग में ‘अंश, अंशमान्’ प्रभृति शब्दों का व्यवहार करते हैं। टीकाकारगण क्लिष्ट कल्पना करते हुए ‘अश’ का अर्थ ‘पूर्ण’ सिद्ध करने के लिये व्यर्थ ही प्रयास करते हैं। समस्त शरीर की तुलना में जैसे केश एक क्षुद्र भग्नांश है। यह भी ध्यान देने की बात है कि श्रीकृष्णरूपी नारायण ऋषि की देह में जो भगवत्प्रकाश का तारतम्य होता था, इस बात को हम महाभारत के अश्वमेध पर्व में अच्छी तरह देख सकते हैं। वहाँ हम देखते हैं कि कुरुक्षेत्र-युद्ध के पश्चात् श्रीकृष्ण के द्वारा का जाने के लिये तैयार होने पर अर्जुन कहते हैं- ‘हे केशव ! कुरुक्षेत्र के रणागंण में आपने मुझे जो उपदेश दिया था चित्त- विभ्रम हो जाने के कारण मैं उसे भूल गया हुँ। आप मुझे पुनः वही उपदेश दीजिये। ‘इसके उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘हे अर्जुन ! मैंने युद्ध क्षेत्र में तुम्हें परब्रह्य के विषय में जो उपदेश दिया था, उस समय मैं योगयुक्त था। इस समय वे सब बातें मेरे स्मरण में नहीं आयँगी’। इस विवरण से हम जान सकते हैं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जब गीता का उपदेश दिया था, उस समय वह योग युक्त थे। यह योग महेश्वर के साथ उनके संवित का संयोग था। अतएव श्रीकृष्ण के मानुषी- तनु में जो भगवत्प्रकाश तारतम्य होता था, इसे अस्वीकार करने कोई कारण नहीं है। किन्तु तथापि श्रीकृष्ण सर्व- अवतार-सार स्वयं भगवान हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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