श्रीकृष्णांक
पवित्र व्रज-लीला
गोपियों ने श्रीभगवान अपने मन को संलग्न किया। ये परस्पर श्रीकृष्णा की वार्ता करती थीं। सदा भगवान की प्रसन्न करने की चेष्ट करती थीं। उन्होंने भगवान में अपने-आपको आत्मभाव से तन्मय कर दिया था और उनके दिव्य-गुण-गान में मग्न होकर घर-बार का भी स्मरण छोड़ दिया था। जो व्यक्ति इस प्रकार की साधना करना चाहता है, उसके लिये भक्तों के सत्संग सें लाभ उठाना और उस लाभ को दूसरे में वार्तालाप, कीर्तन आदि के द्वारा वितरण करना परमावश्यक है; क्योंकि यह भगवान की मुख्य सेवा है। इस परमावश्यक साधना की ओर लोगों का बहुत कम ध्यान है, जो प्रधान बाधास्वरूप हैं। (3) ध्यान- इसके 44वें श्लोक में है कि गोपियाँ श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगी- कृष्णभापना:। यह ध्यान-साधना एक मुख्य और आवश्यक साधना है। (4)स्तुति द्वारा अर्चन- इसके बाद गोपियों ने श्रीभगवान की स्तुति की। स्तुति-प्रार्थना में बड़ा बल है। अन्तःकरण से निकले हुए स्तुति के सच्चे शब्दों से बड़ा ही लाभ होता है। हे राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन (मिलन) की अत्यन्त लालसा सें गोपियाँ भगवान का यश-गान (कीर्तन) करती हुई अन्त में सुन्दर-स्वर से क्रन्दन करने लगीं। उनका यह क्रन्दन बाहार-क्रन्दन नहीं, किन्तु अन्तरात्मा का क्रन्दन था जो अवस्था का द्योतक है, जबकि अन्तरात्मा में ऐसा प्रगाढ़ प्रेमानुराग आ जाता है। जब अपने प्रियतम के मिलन और उसकी स्वरूप-सेवा के बिना पानी के नहीं रह सकती, वैसे ही जीवात्मा भी अपने प्राणप्रिय परमात्मा से मिले बिना नहीं रह सकता। आखिर गोपियों को भगवान के दर्शन हुए, जो इस प्रकार की साधनावस्था का अवश्यम्भावी परिणाम है। इसके बाद इस साधना में राधाभाव तथा महात्यागभाव आदि आते है जो अत्यन्त आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा० 10।32।1
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