श्रीकृष्णांक
पवित्र व्रज-लीला
जीवात्माओं का प्रकृति की ओर जाना प्राकृतिक लीला है। जीवात्मागण इस प्राकृतिक चक्र में पड़कर अपने को तथा अपने केन्द्रों को बिलकुल भूल गये हैं। पीछे ज्ञान के द्वारा उनकी आत्मविस्मृति दूर होती है और ये जीवात्मा रूप सरल रेखाएँ परिधि को त्यागकर अपने केन्द्र के आकर्षण से आकृष्ट होकर केन्द्र की ओर आती हैं। यह अपने केन्द्र की ओर आना ही विश्व आध्यात्मिक रास-लीला हैं। यह ‘रासलीला’ नित्य होती है। इसी नित्य रास-लीला का अभिनय व्रज में रसोत्सव के रूप में किया गया, यह अभिनय गोपी रूप जीवात्माओं की अपने परम कारण परमात्म रूप श्री कृष्ण के साथ युक्त होना था। यह आत्मा और परमात्मा का मिलन था, न कि दो स्थूल शरीरों का। इसलिए इस रास-लीला में प्रवेश करने का उसी को अधिकार है, जिसने प्राकृतिक नानात्व की वासना और ममता तथा अपने अहंभाव रूप पुरुष-भाव को सर्वथा त्याग दिया है और अपनी आत्मा को श्री भगवान की शक्ति मात्र मानकर उनकी दी हुई यह वस्तु उनको समर्पण करने के लिये सदा लालायित रहता है। यही गोपी-भाव है। इस गोपी-भाव में पगे हुए अपने भक्त के बिना भगवान को चैन नहीं पड़ता और जब यथा समय वह आहवान करते हैं। तब दोनों का मिलन होता है, जिसे ’रासलीला‘ कहते हैं। इस रास-लीला को भगवान श्री कृष्ण ने भविष्यत के भक्तों के हितार्थ बाह्य रूप में भी अभिनय करके दिखलाया, जिसमें गोपियाँ आत्मसमर्प की मूर्ति थीं और भगवान श्रीकृष्ण स्वयं परमेश्वर थे। यह आत्मा और परमात्मा का मिलन बाहर में बांह पकड़ने के समान है, जिससे दोनों युक्त हो जाते हैं। जैसे श्री भगवान ने रास लीला में गोपियों के हाथों को अपने हाथ में लेकर उनसे नृत्य कराया यानी उन्हीं के द्वारा सारी गोपिकाएँ सच्चालित होती थीं, वैसे ही समर्पितात्मा भक्त की सारी चेष्टाएँ और क्रियाएँ श्री भगवान के द्वारा ही सच्चालित होती हैं। जैसे श्री भगवान नचाते हैं, उसे वैसे ही नाचना पड़ता है। समर्पितात्मा सेविका केवल एक यन्त्र की भाँति बन जाती हैं दोनों एक न हो जाने पर भी भाव-गति सब एक हो जाती हैं, इससे उसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रहता, स्वतन्त्र क्रिया नहीं रहती; भगवान उसका निमित्त रूप से, विश्व-लीला में विश्वहितार्थ यन्त्र वत उपयोग करते हैं। यही रास-लीला का यथार्थ भाव और रहस्य है। गोपियों की भगवान की प्राप्ति के लिये जो तपस्या थी, उसकी सिद्धि इस रासोत्सव द्वारा हुई और यह रासोत्सव ऐसा परम पवित्र अदभुत समझा गया था कि इसे देखने के लिये अनेक देव, गन्धर्व आदि आये और देखते-देखते आनन्द में भरकर दुन्दुभि-वादन और पुष्प- वृष्टि के साथ भगवान का यश-गान करने लगे। यदि यह रासोत्सव कामाचार होता तो क्या यह कभी सम्भव था ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |