श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान स्वयम
भगवान स्वयं कहते हैं- न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव्। अर्थांत ‘जिस प्रकार अनन्यभक्ति के द्वारा मेरी पूर्ण रीति से प्राप्ति होती हैं उस प्रकार अष्टांग-योग, तत्त्वज्ञान, अहिंसा तथा अन्य धर्मं, स्वाध्याय, तपस्या, संन्यास आदि से नहीं हो सकती।’ यह मत सोचो कि श्रीकृष्ण शब्द का कोई गूढ़ दार्शनिक अर्थं अवश्य होना चाहिये। कुछ लोग यह विश्वास करने को तैयार नहीं हैं कि आमतौर पर श्रीकृष्ण को जैसा समझा जाता हैं, उस श्रीकृष्ण से ही हमारा उद्धार हो जायेगा। इसी से वे लोग ’श्रीकृष्ण’ शब्द के कितने ही आध्यात्मिक अर्थं लगाने का लड़कपन किया करते हैं। वे कहते हैं- ‘कृष्ण’ वर्णं का अर्थं हैं, ‘निर्गुण-अवस्था’, ‘पीताम्बर’ का अर्थं ‘सूर्य की दीप्ति’ तथा ‘मुरली’ का तात्पर्यं ‘ओंकारध्वनि’ अथवा इसी प्रकार कोई अन्य वस्तु हैं। ऐसे लोग समझतें हैं कि हम साधारण अन्धविश्वासी भक्तों की अपेक्षा बहुत ऊँचे तथा दार्शनिक हैं। पर यह असत्य हैं। यद्यपि यह सत्य हैं कि श्रीकृष्ण के अन्तर्गत ये सभी अर्थं आ जाते है; क्योंकि समस्त विश्व का आशय उनमें निहित है, तथापि वह श्रीकृष्ण शब्द का उच्चतम और चरम अर्थं हो, सो बात नहीं हैं। श्रीकृष्ण नन्दनन्दन हैं ! श्रीकृष्ण गोपीवल्लभ हैं और श्रीकृष्ण राधाकान्त हैं। अन्य सभी बातें गौण हैं। -प्रमाणं तत्र गोपिका:। मत मारे-मारे फिरो मुक्ति के लिये ! मुक्ति तो वे पूतना-सदृश असुरों और शिशुपाल-सदृश दैत्यों को भी दे डालते हैं। चाहो केवल श्रीकृष्ण को, उनका प्रेम ही पन्चम पुरुषार्थं हैं। बार-बार जन्म लेने से छुटकारा पाने की इतनी चिन्ता क्यों हैं ? जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही बार-बार अवतार लेते हैं तो क्या उनके साथ उनके दास नही आयेंगे ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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